भगवान श्री कृष्ण ने स्वमुख से गीता में कहा है कि कर्म की गति गहन है।
गहन दीख रही कर्म की गति,
एक गुरु के विद्यार्थी,
एक हो बैठा पृथ्वीपति,
मेरे घर में खाने अन्न नहीं।
खिलवाड़ करते गोकुल में मर्कट,
गुरु के घर लाते लक्कड़ी,
वह आज बैठा सिंहासन चढ़कर,
मेरे तुंबड़ी और लक्कड़ी ।।
कर्म की गति अटपटी है क्योंकि जीवन अटपटा है। एक आदमी दु:खी क्यों और दूसरा सुखी क्यों ? अधिक आश्चर्य तो यह दिख रहा है कि हरामखोर लुच्चे, काला बाजार करनेवाले, घूस लेने वाले सुखी दिखाई पड़ रहे हैं। उनके पास कोठी, मोटर, पंखा, रेडियो, लाखों रुपए हैं, जब न्याय, नीति, धर्म से पवित्र जीवन जीने वाले लोग दु:खी दिखाई पड़ रहे हैं। इसका क्या कारण ? ऐसा जब जगत में प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा है तब अपनी ईश्वर में श्रद्धा डगमगा जाती है । सृष्टि के संचालन में कोई कायदा कानून होगा कि नहीं ? क्या सब अंधेर चल रहा है ? ऐसा प्रश्न होता है कि ‘खुदा के घर अंधेर।’
किंतु हकीकत यह है कि “खुदा के घर देर भी नहीं है और अंधेर भी नहीं है।” इस बात को यथार्थ रीति से समझने के लिए कर्म के नियम का अभ्यास करना आवश्यक है।