अकेलापन – एकलता जीवन का सच्चा आनंद है। आत्मा के अनंत सामर्थ्य के साक्षात्कार का एक प्रवेश द्वार है। अदीनता पूर्वक मस्त भाव से अकेला रहने वाला अवधूत, स्वार्थान्ध क्षुद्र जीवों की दुनिया से सर्वथा अलिप्त रहने वाला लोकोत्तर आत्मा है।
बाहर की सब जड़ – पुद्गलों के संयोग से उदासीन बनकर निर्विग्न महाभाग्य आत्मा को अखंड सच्चिदानंद रूप आत्मज्योति के दर्शन स्वयं के एकांत परायण शांत जीवन द्वारा प्राप्त हो जाते हैं। “आत्मा एक है, अनन्तानन्त शक्ति का स्वामी है, और सर्वतंत्र स्वतंत्र है ; इस आत्म स्वरूप की पहचान एक लता की भव्य वातावरण में ही संभव होती है।
एकलता में आनंद मानने वाले व्यक्ति की किसी अन्य की स्पृहा, अपेक्षा या कामना तनिक भी नहीं होती। निरपेक्ष भाव से स्वयं के सत्व पर निर्भर रहने वाला और जीवन के क्षेत्र में आगे कदम बढ़ाने वाला यह अकेला पुरुष धीर गंभीर और सत्वशील बनता है।
” संजोगमूला जीवेण पत्ता दुक्खपरम्परा “
जगत में दु:ख की रौद्र परंपरा केवल संयोग से उत्पन्न होती है। आत्मा भयंकर दु:खों की अनंत यातनाओं को संयोग के कारण ही भोग रहा है, अतएव संयोग मात्र से अलग रहने वाला आत्मा, संसार की प्रपंच से मुक्त होकर एकांतवास में ही निजानंद का रसास्वादन करता है।
जब आत्मा स्वयं एकलता के संगीत का शौकीन बनकर एकत्व की बंसी बजाने वाला बनेगा, स्वयं की आत्मा को जागृत रखकर यथार्थ रूप से एकत्व का अनुभव करेगा तब ही जन्म, जरा और मृत्यु की अपार वेदनाओं के भार से हल्का बन कर अखंड, अव्याबाध और अनंत आत्मशक्ति की महासागर में डुबकी लगाने वाला एवं अजर – अमर बनेगा।