सच्चे गुरु व सच्चे शास्त्र व्यक्ति को एक ही शिक्षा देते हैं कि अच्छे व्यक्ति बनो, पवित्र विचार रखो , किसी का बुरा मत करो और पुरुषार्थ करो। अलग – अलग व्यक्तित्व की क थाओं के माध्यम से, अलग-अलग उदाहरणों से यही बातें समझाने का प्रयास किया जाता है।
जब व्यक्ति गुरु के पास जाता है, तो उसे बहुत- सी कमियों को त्यागने और बहुत- सी अच्छाइयों को अपनाने का पाठ वहां से मिलता है। जितना वहां जाएगा, उसे नया पुरुषार्थ करने का ज्ञान कहां से मिलेगा।
लेकिन व्यक्ति गुरु के पास पुरुषार्थ बढ़ाने के लिए नहीं जाता है। वह तो सुरक्षा खोजने के लिए गुरु के पास जाता है, गुरु के पास जाऊं तो जीवन की कोई आसान राह मिल जाए। कुछ कम करना पड़े और अधिक मिल जाए। कुछ उनके आशीर्वाद से पाप – कर्म कट जाए और पुण्य – कर्म का उदय हो जाए अपनी भूमिका को कम करने के लिए वहां जाता है।
व्यक्ति यदि ऐसा निश्चय करके गुरु के पास जाए कि बस थोड़ा-सा इशारा मिल जाए, तो और अच्छा है करना तो मुझे ही है। अपनी शक्तियों को और अधिक मुझे जगाना है। कैसे मैं अपने आप को श्रेष्ठ बना सकता हूं, चाहे कितनी भी मेहनत करनी पड़े ऐसी सोच रखकर गुरु के पास जाएं, तो कुछ फायदा हो सकता है। लेकिन व्यक्ति के भीतर कुछ और ही चल रहा होता है।
वह गुरु की बात पर ध्यान कम देता है। गुरु की भक्ति पर ध्यान ज्यादा देता है। वह गुरु की पूजा करता है, वह शास्त्रों की पूजा करता है, ताकि वहां से आशीर्वाद स्वरुप कुछ मिलता रहे, गुरु की कुछ कृपा दृष्टि मिल जाए। इस बात पर बहुत ज्यादा ध्यान है, पर गुरु ने जो कहा है, शास्त्रों में जो बताया गया है उस पर जरा भी ध्यान नहीं है। यह कैसी भक्ति है, समझना मुश्किल है।
व्यक्ति वर्षों तक शास्त्र पढ़ता रहता है, उन्हें रट भी लेता है। रोज गुरु को सुन रहा है, और परिवर्तन नजर नहीं आता है। क्योंकि परिवर्तन के लिए पुरुषार्थ चाहिए, स्वयं की महत्वपूर्ण भूमिका चाहिए।
जब तक व्यक्ति पुरुषार्थ से बचता रहेगा और सुरक्षा खोजता रहेगा तब तक कोई गुरु, कोई शास्त्र कुछ भी भला नहीं कर सकता, चाहे उनकी कितनी ही भक्ति कर लो, चाहे उन्हें कितना ही सुन लो। फिर व्यक्ति रोज – रोज नया गुरु खोजता है, नया शास्त्र पढ़ता है। वह समझता है शायद और कोई बेहतर गुरु या शास्त्र मिलने से मेरा भला हो सकता है। जबकि सच यह है कि यदि व्यक्ति स्वयं की भूमिका को ठीक से समझ ले, तो वह जीवन में घटने वाली हर घटना से ज्ञान ले सकता है। गुरु व शास्त्रों द्वारा जीवन के सारे रहस्य जान सकता है। वह गुरु से ज्यादा ज्ञानी भी बन सकता है। जीवन के सभी रहस्यों की खोज वह स्वयं कर सकता है।
गुरु व शास्त्रों की सबसे सच्ची भक्ति यही है कि उनकी बातों के अनुसार अपने आप में परिवर्तन लाओ। गुरु की प्रसन्नता इसमें ज्यादा है, गुरु की भक्ति में नहीं है।
सच्चा गुरु अपने शिष्य को सीमा में नहीं बांधना चाहता है।उसकी खुशी इसमें हैं कि उसका शिष्य उससे दो कदम आगे निकले। जो काम वह स्वयं नहीं कर पाया, उसे वह शिष्य कर दे। वास्तव में तो वह कोई रास्ता भी नहीं बताना चाहता है, वह तो चाहता है कि उसका शिष्य जीवन का हर रास्ता स्वयं खोजने के लायक बने। गुरु यह नहीं चाहता कि शिष्य उसकी हर बात मानता रहे। वह तो उसके भीतर वह विकास करना चाहता है कि उसमें हर बात को पूरी तरह समझने की, जांचने कि, वह अपने अनुसार सुधार करने की क्षमता हो। गुरु अपने शिष्य को पूर्णतया सक्षम बनाना चाहता है, ताकि वह जीवन में आने वाली हर परिस्थिति का मुकाबला कर सके। आत्मनिर्भर होकर जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति कर सके।