छ:खंड के अधिपति होते हुए भी भरत महाराजा अंतर से सर्वथा अलिप्त थे
ठीक ही कहा है, ‘भरत जी मन ही में बैरागी, भरत जी मन ही में वैरागी।
96 करोड़ ग्राम के अधिपति, 64 हजार देवांगना जैसी स्त्रियों के पति 32 हजार मुकुटबध्द राजाओं के स्वामी, 14 रत्न नवनिधि, आठ महासिद्धि आदि आदि भौतिक समृद्धि के भोक्ता होते हुए भी वे अंतर से सर्वथा न्यारे थे।
एक बार भरत महाराजा स्नान कर कीमती वस्त्र व आभूषणों से अलंकृत होकर आदर्शगृह में पधारें। वहां अचानक उनकी एक अंगुली में से एक मुद्रिका नीचे गिर पड़ी। अचानक उनकी नजर उस अंगुली पर गई। उन्होंने अंगूठी रहित अंगुली को कांति हीन देखा। अरे ! अंगुली शोभा रहित कैसे हो गई ? उसी समय उन्होंने जमीन पर पड़ी मुद्रिका देखी। वे सोचने लगे, क्या दूसरे अंग भी आभूषण रहित इसी तरह शोभा हीन होंगे ? इस प्रकार विचार कर वे अपने शरीर पर से एक एक आभूषण उतारने लगे। मस्तक पर से मुकुट उतारा और वह मस्तक शोभाहीन लगा । तत्पश्चात कानों में से कुंडल, गले में से हार, हाथों में से भुजाबंध, पैर में से कटक निकाल दिया।
वे सोचने लगे, अहो ! इस शरीर को धिक्कार हो ! आभूषणों से शरीर की कृत्रिम शोभा की जाती है… अंदर तो मल, मूत्र, विष्ठा आदि अशुद्ध पदार्थ रहे हुए हैं। जो मनुष्य विषयों का त्याग कर इस शरीर द्वारा तप आदि की साधना करते हैं, वही इस शरीर का वास्तविक फल पाते हैं।
इस प्रकार अनित्यादि भावनाओं से भावित हुए भरत महाराजा क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुए और वहीं पर धाती कर्मों का सर्वथा क्षय कर वितराग केवली बन गए।
उसी समय इंद्र का आसन कंपित हुआ। इंद्र ने प्रार्थना की, ‘हे भगवातं ! आप द्रव्यलिंग का स्वीकार करें, ताकि मैं आपको वंदन करूं और आपके निष्क्रमण का महोत्सव कर सकूं।
उसी समय भरत ने पंचमुष्टी लोच किया और इंद्र द्वारा प्रदत्त श्रमण वेष स्वीकार किया। उसके बाद इंद्र ने उनको वंदना की… क्योंकि केवलज्ञान होने पर भी अदीक्षित पुरुष को वंदना नहीं की जाती।
उसी समय भरत के आश्रित 10,000 राजाओं ने भी दीक्षा ली। इंद्र ने भरत के पुत्र आदित्यपशा का राज्याभिषेक किया। भरत केवली ने एक लाख पूर्व वर्ष तक पृथ्वी तल पर विचरण कर अनेकों को प्रतिबोध दिया। उसके बाद अष्टापद तीर्थ पर एक मास का अनशन कर शाश्वत मोक्ष पद प्राप्त किया। देवताओं के साथ इंद्र ने उनके निर्वाण का महोत्सव किया।