एक सेठ के घर में एक नौकर था दो मालिक का कभी सम्मान नहीं करता था। बात-बात में सेठ जी की बात को काट देना और कदम – कदम पर उनका उपहास करना उसकी आदत बन चुकी थी। किसी के भी आदेश का पालन आवेशपूर्वक करना उसकी खासियत थी। तथापि सेठ जी ने उसे अपने घर में रखा हुआ था क्योंकि उनका जीवन जीने का ढंग निराला था। उनका मानना था नौकर के द्वारा जो भी व्यवहार मेरे साथ किया जा रहा है इसमें नौकर तो मात्र हैं। मूल कारण मेरे पूर्वकृत अशुभ कर्म ही है।
एक दिन सेठ जी के घर अचानक सूरत शहर से चार -पांच मेहमान आ गए। सेठ ने सभी का दिल खोलकर अतिथि सत्कार किया और नौकर को खाना बनाने का आदेश दिया। आदेश सुनते ही उसका आवेश भड़क उठा और उसने मेहमानों के सामने बड़बड़ाना प्रारंभ कर दिया, स्वयं से तो कुछ भी नहीं होता और हमें इतना काम करना पड़ रहा है। मेहमानों को खाने का आग्रह करने की जरूरत ही क्या थी, चाय नाश्ता तो हो गया था। मेहमान अपने आप चले जाते सारे मेहमान का – पीकर चले जाएंगे और सारा काम तो मुझे ही करना पड़ेगा।
ऐसी अनुचित वचन जब मेहमानों ने सुनी तो वे हैरान हो गए और सोचने लगे कैसा नौकर रखा है जो इतनी जबान चला रहा है। न कोई इसकी किसी बात का प्रतिकार करके प्रत्युत्तर देता है ना ही से कोई डांटता है। आखिर मेहमानों ने सेठ जी से पूछ ही लिया, आप इस नौकर को छोड क्यों नहीं देते ? यह कैसा नौकर है जो तुम्हारे घर की इज्जत उतार रहा है और आप खामोश हैं।
सेठ जी ने मुस्कुराते हुए कहा, यह नौकर मेरे क्रोध का थर्मामीटर है, जो पिछले चौदह वर्षों से काम कर रहा है। मैंने इसे अकारण नहीं रखा है। मैं इसलिए इसे बदलना नहीं चाहता, क्योंकि मैं अपने क्रोध पर इतना संयम रख सकता हूं और मुझमें धैर्य कितना है उसकी परीक्षा इसके माध्यम से हो रही जाती है। वैसे भी यह मेरा निमित्त मात्र है जो न प्रतिकार करने के योग्य है और न बदलने योग्य है। यह सुनकर मेहमान और नौकर दोनों दंग रह गए।