एक विद्वान पंडित महा अभिमानी था। वह प्रत्येक गांव में जाता, वहां विद्वान पंडितों को चर्चा के लिए बुलाता, चर्चा में विजय बनकर पारितोषिक लेकर जाता।
अधिकतर वह सामने वालों को पूर्व पक्ष स्थापन करने को कहता और तर्क वितर्क आदि के द्वारा पूर्व पक्ष का खंडन कर विजय माला प्राप्त कर लेता था। एक बार एक नगर में एक नमृ, सरल, अनुभवी और कुशाग्र बुद्धि के धनी संत ठहरे हुए थे।
वह अभिमानी पंडित उस नगर में गया, उसने राज दरबार में सभी पंडितों को जीत लिया। तब उसके गर्व को देखकर एक साधारण व्यक्ति ने कहा – आप हमारे नगर में विराजित संत पुरुष को वाद में जीते तो हम आपको पंडित, विद्वान मानें।
उसने गर्व में आकर बोला कहां है वह संत ? चलो अभी उसे हरा देता हूं। वह कहां गये। वाद का निमंत्रण दिया।
संत ने कहा – भाई ! वाद करना संतों का काम नहीं। संतों का काम उपदेश देना, विरागी बनाना है। तब उसने कहा – देखा मुझे देखकर डर गया। अब बहाने बनाता है। संत ने कहा – बहाने नहीं बनाता हूं। तेरी दया खाता हूं। तू हार जाएगा। तेरी कीर्ति नष्ट हो जाएगी। इसीलिए मना करता हूं। फिर भी वह न माना तब राज्यसभा में संत आए और उसने संत को पूर्व पक्ष सुनाने को कहा – आपके पूर्व पक्ष का मैं अवश्य खंडन करूंगा।
संत ने पूर्व पक्ष को स्थापते हुए कहा – सुना है आप महान हो, पुण्यशाली हो, विद्वान हो, सरल हो, आपके माता-पिता सदाचारी है, धनवान है, आपके स्वजन सज्जन हैं, आपकी माता सती हैं, आप आपके माता-पिता की संतान हैं। इत्यादि पूर्वपक्ष का स्थापन किया।
अब वह इन बातों का खंडन कैसे करें ? चुप रहा। संत के पैरों में गिर कर क्षमा मांगकर बोला – मेरी विद्वत्ता आपकी सरलता, नम्रता के आगे हार गई । मैं भविष्य में कभी गर्व नहीं करूंगा।