आरक्षण भी असुरक्षा के भय से उत्पन्न हुई पद्धति है। जिसका हश्र हर कोई देख रहा है। किसी भी वजह से किसी के भी दिमाग में बैठा ना कि आप कमजोर हैं। आपको यदि सुरक्षा नहीं मिली, तो आप का विकास नहीं होगा। यह एक बहुत बड़ी विपरीत धारणा है। यदि वास्तविकता में किसी का विकास करना हो तो उसके मन से भय व अविश्वास को निकालने की जरूरत है।
उन्हें अच्छी शिक्षा देने और संघर्ष के लिए तैयार करने की जरूरत है। यदि हम ज्यादा आरक्षण का सहारा देंगे, तो वह जाति या वर्ग विशेष कभी भी विकसित ही नहीं हो पाएगा। इसके साथ परस्पर मतभेद वह जातिवाद का जहर फैलता ही जाएगा। जिस चीज को भुलाने की जरूरत है उस चीज को बढ़ावा देंगे, तो हमारा भविष्य कभी अच्छा नहीं हो सकता।
आरक्षण पूर्णतया वैज्ञानिक पद्धति है।
लोगों को यह सिखाना कि किसी और को मिलने वाला अवसर आपको मिलना चाहिए, वैज्ञानिक कैसे हो सकता है। जो लोग किसी समाज के शुभचिंतक के रूप में कार्य करना चाहते हैं, उन्हें आरक्षण के बजाय ऐसे तरीके पर कार्य करना चाहिए जिससे समाज का वास्तविक भला हो सके। लोगों को प्रशिक्षित कर, उनके मन से यह डर निकालना है कि हम किसी से कमजोर नहीं है। उनको थोड़ा संघर्ष करने का मौका दें और जीतने की भावना पैदा करें। किसी और का हक छीनकर नहीं जीतना है, बल्कि औरों के साथ सद्भावना रखते हुए जीतना है। इसे ही असली जीत कहते हैं। औरों का कुछ भी हो, हमें सुरक्षा मिलनी चाहिए, यह कैसी सुरक्षा है। इससे तो आपसी द्वेष पैदा होगा, लड़ाई – झगड़े बढ़ेंगे। क्या हम सुरक्षा की आड़ में असुरक्षा की और नहीं बढ़ते जा रहे हैं ?
यदि स्वतंत्र व्यवस्था खड़ी की जाए, तो सब में मेहनत करने की भावना पनपेगी। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का जन्म होगा। सब आगे बढ़ने का प्रयास करेंगे और अनायास उनकी शक्तियां जागृत होने लगेगी। उनमें भी कुशलता आने लगेगी। शक्तियां प्रकृतिदत्त होती है, प्रकृति जाति नहीं देखती। उन्हें खुलकर मौका दिया जाए, तो ही विकसित हो सकते हैं। उन्हें जाति से कोई लेना – देना नहीं होता। जाति की सोच से मनुष्य में कमजोर विचार आते हैं, जैसे ही इंसान इस सोच से बाहर निकलता है वह पुनः शक्तिशाली बन जाता है।
समाज के किसी भी हिस्से को आर्थिक संरक्षण देकर ऊपर उठाया नहीं जा सकता, बल्कि उल्टा इस तरह से हम उसे सदा – सदा के लिए दमित कर देंगे। इंसान को स्वयं प्रयास कर विकास करना सीखना ही विकास का एकमात्र रास्ता है। किसी का हक किसी और को दे देना क्या कोई सामाजिक या नीतिपूर्ण व्यवस्था हो सकती है ? यदि विकास ही करना है, तो अवसरों को बढ़ाने पर कार्य करना चाहिए । और वह सिर्फ हो सकता है एकता, भाईचारे और मेहनत करने की भावना से, निजी हित के बजाय संपूर्ण राष्ट्र हित की भावना से।