अकड़ हिंसा है। मूर्छा परिग्रह समर्पण है। समर्पण स्वर्ग है। अहंकार नर्क है। विनय मुक्ति द्वार है । सत्य ईश्वर है । संयम जीवन है । परिग्रह पाप है । करुणा धर्म है । सुख-दुख मन के समीकरण है।
आदमी बड़प्पन से बड़ा होता है, ऊंचे आसन पर बैठने से बड़ा नहीं होता । एक व्यक्ति ने यह चिट भेजी हैं। गुमनाम चिट है। इस पर भेजने वाले का नाम, पता कुछ नहीं है। इसमें लिखा है – गुरु जी ! आप उसे सिहासन पर , ऊंची चौकी पर बैठते हो और हम लोगों को नीचे बिठाते हो , क्या यह अच्छी बात है ? एक तरफ तो आप कहते हैं कि सभी आत्माएं समान है । दूसरी तरफ आप खुद ऊंची चौकी पर बैठे हो और हमें नीचे जमीन पर बिठाओ, क्या यह मनुष्यता का अपमान नहीं है ? इससे तो यही जाहिर होता है कि आप अपने को बड़ा और हमें छोटा मानते हैं।
बात बड़ी तार्किक है।
मैं इस संदर्भ में इतना ही कहना चाहूंगा – इस चौकी पर बैठना मेरी मजबूरी है , शौक नहीं। मैं तो चाहता हूं कि तुम भी मेरी तरह मेरे साथ इस चौकी पर बैठो । आओ, मैं निमंत्रण दे रहा हूं। इस चौकी पर बैठने के लिए हिम्मत चाहिए। हिमालय जैसी हिम्मत चाहिए। इस चरित्र की चौकी पर बैठना इतना आसान नहीं है जितना कि लोग समझते हैं ।
चरित्र की चौकी पर बैठने वाला कोई अज्ञानी नहीं हो सकता हैं। किसी ऐरे- गैरे नत्थू खैरे के बस की बात नहीं है। और रही बात चौकी पर बैठने और नीचे बैठाने की तो आप नीचे बैठ कर भी फायदे में हैं।
आप नीचे बैठकर भी बड़े हैं और मैं ऊपर चौकी पर बैठकर भी छोटा हूं । आप पूछेंगे – कैसे ? अरे बाबा ! मैं चौकीदार हूं अतः मैं ‘चौकीदार’ हुआ और तुम जमीन पर बैठे हो तो ‘जमींदार’ हुए। अब तुम ही बताओ कि ‘जमींदार’ बड़ा होता है या ‘चौकीदार’ ? जमींदार ना ।अब मैं तुमसे पूछता हूं कि तुम चौकीदार बनना पसंद करोगे या जमींदार निर्णय तुम खुद कर लेना ।