धर्म यदि आचरण में होकर नहीं आता तो वह धर्म नहीं है। जीवन के प्रति जो असावधानी बरतता है। वह सुखी नहीं हो सकता। वह केवल मूर्छा या प्रमाद में जीता है। जो बाहर से कुछ प्राप्त करता है वह आज नहीं तो कल समाप्त हो जाता है। प्राप्त व समाप्त से परे जो व्याप्त हो जाता है वही जीता है और सुखी रहता है। उसके महत्त्व की पहचान ही सुखी जीवन की कुंजी है। जीना ही सच्चा आनंद है। जो व्यक्ति स्वार्थी है वह सुखी नहीं हो सकता। सुखी जीवन के लिए कथनी और करनी का अंतर मिटाना चाहिये। जीवन और व्यवहार में समता भाव आना चाहिए।
हम सभी दु:खों से घबराते हैं और चाहते हैं कि हमारा दु:ख दूर हो जावे। लेकिन जब तक दु:खों को दूर करने का मार्ग अवगत ना हो और अवगत करने के पश्चात विधिवत उस पर ना चले तब तक दु:ख दूर कैसे हो सकते हैं। आजकल भौतिक पदार्थों में सुखानुभव करते हैं और उनकी प्राप्ति हेतु अपने को उपयोग में लगाते हैं।
पर पदार्थों में सुख को ढूंढना रेगिस्तान में पानी तलाश करने के समान है। सुख का अनंत भंडार स्व-आत्मा है। आत्म शांति प्राप्त करने के लिए समायिक और णमोकार मंत्र का आत्म – चिंतन आवश्यक है। यदि मनुष्य सोना है तो सामायिक और णमोकार मंत्र उसके लिए पारस का काम करेंगे। और यदि उसमें जंग लगी हुई हो तो उसके लिए शान का काम भी करेगा और उसे चमका देगा। आत्मा को शुद्ध करने के लिए समायिक उत्तम उपाय है।
सामायिक के समय गृहस्थ भी मुनि के समान बन जाता है क्योंकि दोनों ही उस समय आत्म कल्याण में लीन होते हैं। केवल भिन्नता इतनी होती है कि गृहस्त वाह्य में वस्त्र पहने रहता है अतरंग में उनमें कोई भेद नहीं रहता।
अगर हम संसार में रहने की कला सीख ले तो कैसी भी स्थिति में सामायिक सिद्ध करने में बाधा नहीं होगी। भरत जी घर में भी विरक्त थे इसी कारण उत्कृष्ट ध्यान की सिद्धि करके मोक्ष को गए। भगवान महावीर ने कहा है कि – नाव चाहे पानी में रहे पर नाव में पानी न हो। मनुष्य चाहे संसार में रहे लेकिन उसके अन्तस्थ में संसार ना हो। जब तक मन राग द्वेष के वशीभूत हुआ इधर-उधर भटकता है और साम्यभाव की बिना आत्मिक शांति संभव नहीं है। आत्मशांति स्वचिंतन से ही संभव है।