भरत श्रेष्ठ आपके अठानवें भाइयों ने दीक्षा ग्रहण कर ली है। अन्य तो सब आपकी आज्ञा मानते हैं पर महा अभिमानी बाहुबली आपकी आज्ञा नहीं मानते। वह अपनी भुजा के बल का बहुत पराक्रम दिखाते हैं। इसीलिए उन्हें मूल से उखाड़ देना चाहिए। यह एक ऐसा महा रोग है, जो आपके लिए व्याधि उत्पन्न कर रहा है।
यह सुनकर भरत महाराजा ने अपने सुवेग नामक दूत को सब बात समझाकर बाहुबली के पास भेजा।
दूत के मुंह से भरत का संदेश सुन बाहुबली की भृकुटी तन गई।
दूत! भरत अभी भूखा है। अपने अठानवें भाइयों का राज्य हड़प कर भी तृप्त नहीं हुआ। मैं युद्ध करना नहीं चाहता। आक्रमण को अभिशाप मानता हूं। किंतु आक्रमणकारी को सहन करूं, यह मेरी सहनशक्ति से परे है सहन करने की भी एक सीमा होती है।उसे अपनी शक्ति का गर्व है। वह सब को दबाकर रखना चाहता है, वह शक्ति का सदुपयोग नहीं दुरुपयोग है। मैं उसे बतलाना चाहता हूं कि आक्रमण कितना बुरा है।
बाहुबली की बात सुनकर दूत लौट आया। उसने भरत महाराजा के पास आकर सारी बात कह सुनाई। भरत भी चुप बैठने वाले कहां थे। विशाल सेना के साथ युद्ध करने हेतु “बहली देश” की सीमा पर पहुंच गए। दूसरी और बाहुबली भी अपनी सेना के साथ मैदान में आ पहुंचे। थे इस प्रकार बारह वर्ष तक युद्ध जारी रहा।
करोड़ों लोग मर गए। खून की नदियां बहने लगी पर कोई हरा नहीं।तब बहुत बड़ा अनर्थ होते देखकर सौधर्मेंद्र और चमरेंद्र ने भरत के पास आकर कहा कि “भगवान तो लोगों का पालन पोषण करके गए और तुम लोगों का नाश करने के लिए तैयार हुए हो। ऐसा क्यों ?” तब भरत ने कहा कि ‘जब तक बाहुबली मेरी आज्ञा ना माने तब तक चक्र आयुध शाला में प्रवेश नहीं करता। बताइए अब मैं क्या करूं ? यह सुनकर इंद्र ने कहा कि ‘तुम दोनों भाई परस्पर एक दूसरे के साथ युद्ध करो, पर अन्य कोई लोगों का नाश मत होने दो। भरत ने यह बात कबूल की। फिर वे दोनों इंद्र बाहुबली के पास गए और कहा कि ‘इस प्रकार युद्ध में लोगों का नाश करना ठीक नहीं है। इसीलिए तुम दोनों भाई ही आपस में युद्ध करो।’ बाहुबली ने भी उनकी बात मान्य की।
फिर इंद्रों ने मिलकर एक दृष्टि युद्ध दूसरा वाक् युद्ध तीसरा बाहु युद्ध चौथा मुष्टि युद्ध और पांचवा दंड युद्ध। ये पांच युद्ध करने का प्रस्ताव दिया।
दृष्टि युद्ध, वाक् युद्ध, बाहु युद्ध, मुष्टि युद्ध, दंड युद्ध इन पांचू युद्धों में भरत महाराजा हार गए।
फिर वह चिंताचूर होकर सोचने लगे कि यह मेरा राज्य ले लेगा। क्या यह कोई चक्रवर्ती है ? यह सोच कर उन्होंने अपने हाथ में चक्र लेकर अपनी प्रतिज्ञा का भंग कर उसे घुमा कर बाहुबली पर छोड़ा। पर चक्र अपने गोत्र में नहीं चलता है। इस कारण से वह चक्र बाहुबली को तीन प्रदक्षिणा देकर पुनः भरत के हाथ में आ गया। भरत महाराजा ने अपनी प्रतिज्ञा को भंग किया इससे बाहुबली को बहुत गुस्सा आया। मुक्का तानकर भरत को मारने दौड़े। सब देवो ने कहा कि “आप थोड़ा विचार कीजिए” यह सुनकर बाहुबली ने सोचा कि धिक्कार है इस राज्य को, जिसके कारण मेरे मन में बड़े भाई को मारने का विचार आया।
इस प्रकार वैराग्य प्राप्त कर बाहुबली ने भरत को मारने के लिए जो मुट्ठी उठाई थी, उसी मुट्ठी से अपने मस्तक का लोच करके दीक्षा ग्रहण की। देवों ने उस समय पुष्प वर्षा की।
फिर बाहुबली जी ने वहां से विहार किया। बाहुबली जी के चले जाने से भरत राजा विलाप करने लगे कि ‘मेरे सब भाई दीक्षा लेकर चले गए’ फिर बाहुबली के पुत्र सोम यश को तक्षशिला का राज्य सौंपकर भरत राजा अयोध्या नगरी में आए।
विहार के दौरान बाहुबली के मन में विचार आया कि मेरे छोटे अठानवे भाइयों ने श्री ऋषभदेव जी के पास पहले दीक्षा ली है और वह केवली हुए हैं। इसीलिए यदि अब मैं भगवान के समवशरण में जाऊंगा, तो छोटे भाइयों को वंदन करना पड़ेगा। इसीलिए मैं यही काउस्सग्ग में रहकर केवल ज्ञान प्राप्त करके फिर भगवान के पास जाऊंगा। यह सोच कर मन में अभिमान धारण करके वह वही काउस्सग्ग ध्यान में खड़े रहे।
इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। बाहुबली जी के सिर तक लताएं चढ़ गई। उन्हें प्रति बोध देने के लिए श्री ऋषभदेव ने ब्राह्मी और सुंदरी इन दोनों साधवियों को भेजा। उन्होंने वहां जाकर बाहुबली से कहा कि “हे वीरा! हे भाई! तुम हाथी से नीचे उतर जाओ। हाथी पर सवार होने से केवल ज्ञान नहीं होगा।” उनके यह वचन सुनते ही बाहुबली ने सोचा कि यह साध्वीया कभी झूठ नहीं बोलती और हाथी तो मेरे पास नहीं है। पर हां, अहंकार रूप हाथी पर मैं सवार हूं। यह सोच कर अभिमान का त्याग कर उन्होंने भगवान के पास जाने के लिए ज्यों ही कदम उठाया, त्यों ही उन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया। फिर वह केवल कि पर्षदा में जाकर विराजमान हुए।