पुष्कर नगर में पुरुषोत्तम राजा राज्य करता था। राजा न्यायप्रिय, सदाचारी एवं धर्मप्रिय था। उसके अंत:पुर में कितनी रानियां थी। उनमें चार रानियां पटरानी पद पर सुशोभित थी। क्रमशः सुनीता, सुंदरी, प्रीति एवं प्रियलता ये उनके नाम थे।
पुरुषोत्तम राजा का प्रथम प्रियपाल नामक प्रधान था यह पांच सौ मंत्रियों पर प्रधानमंत्री एवं औत्पातिकी बुद्धि का धनी था। वह राज्य की जटिल से जटिल गुत्थियों को क्षणभर में सुलझा देता था।
सुनन्द कुमार नामक नगरसेठ राजा का प्रिय पात्र था। सुनन्द सेठ के पास पूर्वजों से प्राप्त चिंतामणि रत्न था। चिंतामणि रत्न के प्रभाव से प्रजा जनों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति सुनन्द सेठ कर देता था।
राजपुरोहित नामदेव भी राजा का प्रिय पात्र था। वह ज्योतिष विद्या का पूर्ण ज्ञाता था। उसके द्वारा प्रदत्त भूत, भविष्य एवं वर्तमान की घटनाओं का विचरण प्राय: सत्य ही होता था।
राजा, प्रधान, नगरसेठ एवं राजपुरोहित ये चारों व्यक्ति जैन धर्म पर पूर्ण श्रद्धा रखते थे। चारों दिशाओं में पुष्कर नगर की ख्याति धर्म – नगरी के नाम से थी।
अनेक जिनालयों से मंडित इस नगर के बाहर राजा के पूर्वजों द्वारा निर्मित एक एकड़ भूमि में नंदीश्वर द्वीप नामक बावन जिनालय की रचना प्रत्येक यात्री का मन मोह लेती थी। दूर-दूर से यात्री नंदीश्वर द्वीप – तीर्थ के दर्शन करने आते थे। राज्य की ओर से यात्रियों को सारी सुविधाएं उपलब्ध थी। पाथंशाला, दानशाला, भोजनशाला एवं पोषधशाला सभी विद्यमान थी। सारी व्यवस्था समुचित एवं सुंदर थी। एक बार आने वाला दर्शक बार-बार आता था। वहां आचार्यादि मुनि भगवंतों के चातुर्मास एवं मासकल्प होते रहते थे। जन समुदाय सतत उपयोग सहित धर्म मार्ग में प्रवर्तमान था।
पड़ोसी देश के राजा ने एक बार रत्नों से भरा थाल भेजा और कहा कि – रत्नों को स्पर्श किए बिना इन रत्नों का मूल्य निश्चित कर पर भिजवाए। यदि नहीं भिजवा सको तो हमारी आज्ञा स्वीकार करो।
रत्नों की सुंदरता और चमक देखकर अनेक जौहरियों ने उन रत्नों को बहुमूल्य बताया। पुण्यपाल प्रधानमंत्री ने रत्नों को सूक्ष्मता से देखा। उसने एक आदमी को पानी लाने को कहा। प्रधानमंत्री ने रत्नों के थाल में पानी डाल दिया। पांच मिनट में सारे रत्न गल गये। केवल एक रत्न बचा। सारी राज्यसभा एवं विशेषकर जौहरी आश्चर्यचकित हो गए। इतने चमकीले एवं सुंदर दिखाई देने वाले रत्न कैसे गल गये ?
पुण्यपाल प्रधान ने कहा – ये सारे रत्न शक्कर के बनाए हुए थे। कारीगर में इनको बनाने में अपनी सारी कला का उपयोग किया था। सामान्य व्यक्ति को रत्न ही दिखाई देते थे। इन रत्नों पर एक मक्खी बैठी देखकर मैं समझ गया कि किसी कलाकार ने शक्कर पर अपनी कला का प्रयोग किया है। बचा हुआ रत्न वास्तविक रत्न है। यह अमूल्य है। यह जलकांत मणि है, इस मणि ने पानी को दो भागों में विभक्त कर दिया है।
राजा अत्यंत प्रसन्न हुआ। पड़ौसी देश में आने वाले प्रधान पुरुषों ने पुण्यपाल मंत्री की बुद्धिमता की भूरी – भूरी प्रशंसा की और अपने राजा के द्वारा भेजा हुआ रत्नों का हार प्रधानमंत्री पुणेपाल के गले में डाल दिया। राजा को अपने राजा की मित्रता का संदेश दिया। पुरुषोत्तम राजा ने पड़ोसी राजा की मित्रता स्वीकार की। अपनी और से उस राजा को भेंट भी भेजी। वह जलकांत मणि पुष्कर नगर के राज्य भंडार में रख दी गई। इस प्रकार दो राज्यों के बीच संबंध की अभिवृद्धि हुई।