इन दिनों अर्थ का बोलबाला इतनी तेजी से बढ़ रहा है। कि हर वर्ग के लोग येन केन प्रकारेण धन एकत्रित करने में जुटे हुए हैं। भले ही उसके दुष्परिणाम उसकी दुनिया को उजाड़ दें मगर पाप और पुण्य की परिभाषा को नजरअंदाज कर हर व्यक्ति इस दौड़ में से दौड़ रहा है।
जिस परमपिता की हम संतान हैं, उन्होंने हमें इस सृष्टि पर कर्म करने के लिए कुछ समय के लिए भेजा है। हमने तो दुनिया को अपनी जागीर समझ लिया है।जैसे धन से हम जिंदगी खरीद कर संसार में स्थाई रहेंगे। पाप कर्म से इकट्ठी की हुई धन की गटरी को हम कहां तक साथ ले जायेंगे।
इस तरह से सोचने की शायद हमें फुर्सत तक नहीं है। परमात्मा ने कहा है – कि सहज मिले वह दूध बराबर, मांग लिया वह पानी, खींच लिया वह खून बराबर, कह गए महावीर वाणी।
बड़ी विडंबना है कि आज इस उक्ति को नजरअंदाज कर हर व्यक्ति अर्थ के लिए क्या-क्या नहीं करता, इसकी शब्दों में व्याख्या जितनी की जाए उतनी कम होगी। पुण्य कमाने के लिए एकमात्र पूजा व श्रध्दा केंद्र हमारे तीर्थ व धर्म स्थान होते हैं, मगर दुर्भाग्य है कि अब वह भी स्थान इससे अछूते नहीं रहे। एक स्थान से निकली हुई चिंगारी पूरे परिसर को नष्ट करती है उसी तरह एक धर्मस्थल पर हो रहे पाप को नहीं रोका जाए जाता है तो वो रोग दूसरे स्थानों पर भी जन्म लिए बिना नहीं रहता है।
कलयुग के इंसान ने बाहर से भले ही धार्मिकता का चोला पहन रखा है, मगर भीतर से नास्तिक होकर धर्म को ही लुटता चला जा रहा है। धन के लोभी ऐसे इंसानों को परमात्मा की सजा परोक्ष या प्रत्यक्ष मिलती रहे जरूर है, मगर इस युग में इसका असर बाहर से दिखने को कम मिलता है। मुश्किल से मिले इसे इस नर तन को परमात्मा के भरोसे छोड़ने वाले इंसान आज इस दुनिया में शायद हमारे से कई गुना सुखी है। अर्थ की ताकत भले ही इस लोक में कितनी ही शक्तिशाली हो सकती है, मगर भगवान के आगे उसकी भी शक्ति क्षीण ही है। फिर क्यों ना आज ही उस दाता से नाता जोड़ कर अपने को स्वस्थ सुखी बनाए।