भगवान महावीर की अहिंसा का सार है – “तुम स्वयं जिओ और दूसरों को भी आनंद से जीने दो”। पढ़ लेने से धर्म नहीं होता, पोथियों और पिच्छी से भी नहीं होता, किसी मठ में रहने से भी धर्म नहीं होता और केश लोच करने को भी धर्म नहीं कहा जाता। भौतिकता, मान, माया क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या, धर्म का नाम नहीं है। धर्म तो आत्मा में है। उसे पहचानने से धर्म की प्राप्ति होती है। मनुष्य स्वयं तो जीने की कामना करता ही है पर उसे प्राणीमात्र के लिए भी अहिंसा मार्ग अपनाकर जीने की कामना करनी चाहिए। जैन तीर्थंकरों का आदर्श यहीं तक सीमित नहीं था। उनका आदर्श था, ‘ दूसरों को जीने में मदद करो।’ तो जनसेवा के मार्ग से सर्वथा दूर रहकर एकमात्र भक्ति वाद के अर्थ शून्य क्रिया काण्डों में ही उलझा रहता है वह सच्चा मानव नहीं है।
भगवान महावीर ने एक बार यहां तक कहा कि मेरी सेवा करने की अपेक्षा दीन दुखियों की सेवा करना है कहीं अधिक श्रेयस्कर है। मैं उन पर प्रसन्न नहीं हूं जो मेरी भक्ति करते हैं। मेरी आज्ञा है, ‘प्राणीमात्र को सुख सुविधा और आराम पहुंचाना’। भगवान महावीर का महान ज्योतिमय संदेश आज भी हमारी आंखों के सामने हैं, यदि हम थोड़ा बहुत भी प्रयत्न करना चाहें।
अहिंसा के अग्रगण्य संदेश वाहक भगवान महावीर हैं। आज दिन तक उन्हीं के संदेशों का गौरव गान गाया जा रहा है।
आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व भारतीय संस्कृति के इतिहास में अंधकार पूर्ण युग था। देवी देवताओं के आगे पशु बलि के नाम पर खून की नदियां बही जा रही थी, सुरा पान का दौर चलता था। अस्पृश्यता के नाम पर सैकड़ों की संख्या में लोग अत्याचार की चक्की में पीसे ही जा रहे थे।
स्त्रियों को मनुष्योचित अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। एक क्या अनेक रूपों में सब और हिंसा का विशाल साम्राज्य छाया हुआ था।
किंतु भगवान महावीर ने उस समय अहिंसा का जो अमृत संदेश दिया उससे भारत की काया पलट गई। क्या मनुष्य पशु सबके प्रति उनके हृदय में प्रेम का सागर उमड़ पड़ा। भावों से हटकर मनुष्यता की सीमा में प्रविष्ट हुआ। अहिंसा के संदेश ने सारे मानवीय सुधारों के महल खड़े कर दिए।
लेकिन दुर्भाग्य से वे महल आज गिर रहे हैं।
मनुष्य के लिए सबसे बड़ी पूजा यह है कि किसी का दिल नहीं दुखाये। ज्यादा दु:खी वही होता है जो हर वक़्त सुख की तलाश में रहता है।
उस सुख की तलाश के लिए सिर्फ एक ही उपाय है, वह है “णमोकार मंत्र” जिससे सारे पापों का क्षय होगा तथा जीवन में सुख शांति मिलेगी।
मानव जीवन बहुत मूल्यवान है, कीमती है। सेवा भाव, विनम्रता, चारित्रिक दृढ़ता व निव्र्यसनता के साथ जीवन व्यतीत करना ही मानव जीवन की सार्थकता है।