दीक्षा अंगीकार करने के बाद बाहुबली जी निरंतर एक वर्ष तक कायोत्सर्ग की साधना में स्थिर रहे, अग्नि के समान दोपहर का सूरज उनके सिर पर तपता था, फिर भी वे अपने ध्यान से लेश भी नहीं डिगे। भयंकर गर्मी हो… चाहे भयंकर ठंडी हो… चाहे मूसलाधार बारिश हो… परंतु वह पर्वत की तरह निश्चल रहे। अनुकूल या प्रतिकूल कोई भी परिषह उनके मन को हिला न सका। कई लताएं उनके शरीर पर लिपट गई… कई पंखियों ने उनके शरीर पर घोसले बना दिए… फिर भी वे निश्चल रहे।
इस प्रकार एक वर्ष पूरा हो जाने के बाद ऋषभदेव प्रभु ने अपनी पुत्री ब्राह्मी वह सुंदरी को कहा, ‘अब समय पक चुका है’ अतः तुम जाकर बाहुबली को प्रतिबोध दो… तुम्हारे वचनों से वह मान छोड़ देगा। उपदेश के लिए यह योग्य समय है।
प्रभु की आज्ञा होते ही ब्राह्मी व सुंदरी साध्वी बाहुबली के पास आई। वृक्ष की भांति स्थिर खड़े बाहुबली को देखकर उन दोनों ने कहा, हे ज्येष्ट आर्य ! ऋषभदेव स्वामी ने आपको कहलाया है कि हाथी पर सवार पुरुष को कभी केवल ज्ञान नहीं होता।
बाहुबली महामुनि ने जब यह शब्द सुने तो वे अचरज में पड़ गए। वे सोचने लगे, ‘अहो मैंने तो सावधयोग का सर्वथा त्याग कर दिया है, मैं तो वृक्ष की तरह कायोर्त्सर्ग में खड़ा हूं… तो फिर मेरी हाथी की सवारी कैसी ? और इन आर्याओं ने भी महाव्रत स्वीकार किए हैं, ये भी तो कभी झूठ नहीं बोलती हैं… इस प्रकार विचार करते करते उन्हें ख्याल आया कि अहो ! मैं अभिमान रूपी हाथी पर बैठा हुआ हूं। मुझसे पहले मेरे भाइयों ने दीक्षा स्वीकार की है… उनको नमन नहीं करने की भावना से ही मैं यहां खड़ा रहा कहो ! मेरे अभिमान को धिक्कार हो।अहो ! मुझसे पहले व्रत ग्रहण करने वाले मेरे छोटे भाइयों को वंदना करने की इच्छा नहीं हुई…. अब मैं इसी समय वहां जाकर उन्हें वंदन करूंगा। इस प्रकार विचार कर जैसे ही बाहुबली जी ने छोटे भाइयों को वंदन की भावना से अपना कदम उठाया… तत्क्षण उन्हें केवल ज्ञान हो गया। तत्पश्चात सौम्य दर्शन वाले वे महात्मा ऋषभदेव स्वामी के पास गए… और वहां प्रभु को तीन प्रदक्षिणा देकर केवली पर्षदा से बैठे।
इस प्रकार अभिमान के कारण बाहुबली का केवल ज्ञान अरुक गया और जैसे ही उन्होंने अभिमान छोड़ा तत्क्षण उन्हें केवल ज्ञान हो गया।