शरीर, मन एवं आत्मा इन तीनों का संगम इसी का नाम है वर्तमान जिंदगी।
पर मुश्किल यह है कि इन तीनों का स्वभाव विचित्र है –
शरीर परतंत्र है –
खुराक के बिना, पानी के बिना, हवा के बिना और बीमार पड़े तो दवाई के बिना यह टिक नहीं सकता।
जबकि
आत्मा स्वतंत्र है –
वह किसी भी वस्तु के बिना, व्यक्ति के बिना, सामग्री के बिना या संयोग के बिना मजे से अपने अस्तित्व को टीका सकती है, परंतु मन ?
वह स्वतंत्र भी है और परतंत्र भी है –
वह यदि आत्मा के पक्ष में है तो स्वतंत्र है और यदि शरीर के पक्ष में है तो परतंत्र है। अर्थात ?
अर्थात यह कि मन यदि चौबीसों घंटे शरीर के विचारों में खोया रहता है तो वह रोग के, वृद्धावस्था के और मृत्यु के आगमन के विचारों से डरता ही रहेगा, पर यदि उसे चौबीसों घंटे आत्मा ही दिखती रहती हो तो रोग, वृद्धावस्था या मृत्यु की कल्पना तो क्या, उन तीनों की वास्तविक उपस्थिति में भी वह निर्भय ही रहेगा।
संदेश स्पष्ट है।
चाहे कितना भी ध्यान रखो, कितनी ही सार – संभाल करो, शरीर को तुम स्वतंत्र नहीं बना सकोगे।
उसकी मृत्यु होगी ही।
वह राख में रूपांतरित होगा ही।
दूसरी ओर,
तुम चाहे कितने भी लापरवाह रहो, आत्मा परतंत्र नहीं ही बनेगी। शरीर आग में जल रहा होगा तब भी वह अखंड ही रहने वाली है।
इसीलिए तुम्हें जो कुछ करना है – समझना है, नियंत्रण करना है, ध्यान रखना है – वह सब मन के साथ करना है, मन के लिए करना है।
गलती से भी तुमने उसे शरीर की तरफ मोड़ दिया तो ” भयभीत मनोदशा “ तुम्हारी निमित्त बन जाएगी।
और यदि बहादुरी के साथ तुमने उसे आत्मा पर केंद्रित कर दिया तो ” अब हम अमर भये न मरेंगे “ का सूत्र तुम्हारे हृदय में स्पंदित होता ही रहेगा।