” भीम ” यह नाम पाने के लिए कोई पराक्रम नहीं करना पड़ता,
परंतु प्राप्त हुए इस नाम को सार्थक करने के लिए पराक्रमी बने बिना नहीं चलता है। ” ” महावीर ” यह नाम तो दो कौड़ी के व्यक्ति को भी मिल सकता है, परंतु प्राप्त हुए इस नाम को चरितार्थ करने के लिए जान की बाजी लगा देनी पड़ती है।
कहने का तात्पर्य इतना ही है कि शिखर पर बैठने का सौभाग्य तो कौवे को भी मिल जाता है परंतु शिखर पर गरुड़ का बैठना अलग बात है और कौवे का बैठना अलग बात।
आकाश में उड़ने का सौभाग्य तो फटे हुए कागज के टुकड़े को भी मिल जाता है, परंतु आकाश में उड़ना गरुड़ के लिए अलग होता है और कागज के टुकड़े के लिए अलग होता है।
क्योंकि,
एक के पास प्राप्ति है, दूसरे के पास पात्रता है। एक के पास केवल संयोग है, दूसरे के पास क्षमता है।
इस संदर्भ में एक अत्यंत गंभीर बात दृष्टि के समक्ष रखने की आवश्यकता है –
पात्रता बिना का लाभ गैरफायदे का एवं पात्रता बिना की प्राप्ति पतन का कारण बन जाए ऐसी पूरी पूरी संभावना है।
सुभाषित की यह पंक्ति यही बात कहती है – “उत्तम वस्तु बिना अधिकार के मिले,
तदापि अर्थ है उसका कुछ नहीं,
मत्स्यभोगी बगुला मुक्ताफल देखकर भी कुछ डालता है कभी नहीं।”
मछलियां खाने वाले बगुले के सामने तुमने भले ही मुक्ताफल रख दिया है, वह तो मछलियों पर ही आक्रमण करेगा।
शराबी के सामने तुम ने भले ही केसरिया दूध रख दिया है, वह तो शराब की प्याली ही होंठों पर लगाएगा।
संदेश स्पष्ट है।
पुण्य से तुम्हें जो भी प्राप्त हुआ हो उसकी प्राप्ति को चरितार्थ करने के लिए तुम्हें अपनी पात्रता विकसित करनी ही पड़ती है और पात्रता को विकसित करने के लिए तुम्हें प्रबल पुरुषार्थ करना ही पड़ता है।
याद रखना,
पुरुषार्थ दीपक है तो पुण्य दीपक की परछाई है। दीपक की उपेक्षा करके सीधे परछाई पकड़ने के फेर में दीपक को खोने का दुर्भाग्य जीवन में आ जाए ऐसी पूरी संभावना है।
इसीलिए कहता हूं कि,
नाम (पुण्य) से ही अच्छा मिल गया हो तो उसे फेंक मत देना।
उसका ऐसा सुंदर सदुपयोग करते रहना कि प्राप्त नाम (पुण्य) को सही अर्थों में चार चांद लग जाएं।