जमीन में तुम आज गुठली बोओ,
आम के दर्शन के लिए तुम्हें धीरज रखनी ही पड़ेगी।
बैंक में तुम आज पैसे जमा करो,
ब्याज पाने के लिए तुम्हें धीरज रखनी ही पड़ेगी।
स्त्री आज गर्भवती बने,
पुत्र दर्शन के लिए उसे धीरज रखनी ही पड़ेगी।
रात को दूध में जामन डालती है,
दहीदर्शन के लिए उसे धीरज रखनी ही पड़ती है।
साधक आज साधना करता है,
सिद्धि के लिए उसे धीरज रखनी ही पड़ती है।
संपत्ति को, सत्ता को, सौंदर्य को, सफलता को ” धन ” मानने के लिए मन तैयार है,
पर धीरज को ” धन ” मानने के लिए मन तैयार नहीं है।
और इसका ही यह दुष्परिणाम है कि आज का मनुष्य सतत अशांति में जी रहा है। हताशा, निराशा और उद्विग्नता मानो उसके जीवन के अंग बन गए हैं। पुरुषार्थ करने की उसमें जितनी लगन होनी चाहिए उसकी अपेक्षा परिणाम प्राप्त कर लेने की लगन उसमें अधिक दिखाई देती है।
परिणाम के लिए वह जितना अधिक बेसब्र बनता है परिणाम उससे उतना ही दूर भागता है। यह बात अच्छे से समझ लेना कि,
मनुष्य जितना अधिक अधीर उतना ही अधिक अधूरा।
पानी की प्राप्ति के लिए एक व्यक्ति ने पांच फीट गहरा गड्ढा खोदा।
पानी नहीं दिखा।
वह गड्ढा अधूरा छोड़कर दूसरी जगह पांच फीट का गड्ढा खोदा।
वहां भी पानी नहीं मिला।
ऐसा करते – करते पचास जगह पर पांच – पांच फीट के गड्ढे खोदे। पर पानी कहीं नहीं मिला।
पुरुषार्थ पर पूर्णविराम लगाकर वह व्यक्ति सर पर हाथ रख कर बैठ गया। थोड़ी धीरज रखी होती, एक ही जगह पर गड्ढा खोदने का पुरुषार्थ जारी रखा होता तो चालीस फीट, पचास फीट या सौ फीट पर उसे पानी मिल ही जाता !
याद रखना,
संपत्ति के क्षेत्र की निर्धनता से ज्यादा – से – ज्यादा क्या होता है ? जीवन में सुविधाएं आती हैं।
परंतु ,
धीरज के क्षेत्र की निर्धनता तो जीवन में अवगुणों का आमंत्रण दे बैठती हैं।
अंतिम संदेश –
” जीवन के मार्ग में जल्दबाजी नहीं किसी काम की, चलने वाले पहुंचेंगे और दौड़ने वाले थकेंगे “