भूतकाल विधवा स्त्री जैसा है,
उसके पीछे रोते रहने का कोई अर्थ नहीं है। भविष्य काल कुंवारी कन्या जैसा है,
उससे डरते रहने का कोई अर्थ नहीं है। वर्तमान काल सौभाग्यवती स्त्री जैसा है,
उससे भागते रहने का कोई अर्थ नहीं है। परंतु, परेशानी तो यह है कि मन को या तो भूतकाल की स्मृति में या फिर भविष्य की कल्पना में ही रमना अधिक लगता लगता है।
और तो और, भूतकाल की स्मृति में भी वह कटु भूतकाल की स्मृति में ही रमता रहता है और भविष्य की कल्पना में भी वह खराब भविष्य की कल्पना में ही रमता रहता है। परिणाम ?
प्राप्त हुए सुंदर वर्तमान के सदुपयोग के अवसरों का बलिदान !
एक बात याद रखना कि आज तक अनंतकाल व्यतीत हो चुका है इसके बावजूद ” आने वाला कल ” कभी नहीं आया। जब भी आया है ” आज ” ही आया है । और सुखद आने वाले कल की कल्पना में मानव अनंत अनंतकाल से सशक्त “आज” का बलिदान देता ही आया है।
इस जन्म में हमें इस भूल को सुधार ही लेना चाहिए।
किसी अज्ञात अंग्रेजी लेखक के काव्य की डॉ वसंत पारीख द्वारा अनुवादित इन पंक्तियों में यही संदेश दिया गया है –
” इस दर्दील दुनिया में एक ही फेरे में,
एक ही बार में आकर जाना लिखा है।
यदि मैं प्यार दर्शाऊं,
यदि मैं कर्म – सत्कर्म करूं,
किसी दु:खी बंधु के लिए –
करते ही जाने दो मुझे, जहां तक कर सकूं। न प्रमाद उसमें, ना कभी उधार,
बिल्कुल सीधी – सादी बात।
मैं दोबारा इस रास्ते पर आने, निकलने, झांकने या गुजरने वाला नहीं हूं, नहीं ही हूं। मौका केवल एक ही बार मिला है।
संदेश स्पष्ट है।
बीज हाथ में है।
उसे नष्ट कर देना और फिर फल की आशा में रहना ? पागलपन है।
स्वस्थ वर्तमान प्राप्त है।
उसके सदुपयोग के मामले में लापरवाह रहना और उज्जवल भविष्य की कल्पना में रमना ? पागलपन है।
अंतिम बात,
वर्तमान से जितना ले सकते हो उतना ले लो क्योंकि वह जब समाप्त हो जाएगा तब अंतिम सांस भी नहीं रहने देगा।