कोई व्यक्ति क्या है,
यह जानने के लिए दो मुख्य कसौटी है। उसके पास जब कुछ नहीं होता तब स्वयं के लिए वह क्या सोचता है ?
यह पहली कसौटी और स्वयं के पास बहुत – कुछ होता है तब दूसरों के लिए क्या सोचता है ? यह दूसरी कसौटी।
संक्षिप्त में,
दु:ख के समय अपने लिए कौन सा विचार और सुख के समय में दूसरों के लिए कौन सा विचार ? मनुष्य की श्रेणी पता करने की यह दो मुख्य कसौटी है।
सामान्यतः ऐसा देखा गया है कि दु:ख के समय में व्यक्ति दूसरों पर दोषारोपण करके अपने दु:ख को हल्का(?) करने का प्रयत्न करता रहता है। और सुख के समय अपने सुख को खुद तक सीमित रख कर सुख को सुरक्षित रखने का भ्रम पालता रहता है।
पर वास्तविकता यह है कि स्वयं के दु:ख की जिम्मेदारी खुद स्वीकार कर लेना यही दु:ख को हल्का करने का यावतृ दु:खमुक्त होने का श्रेष्ठ उपाय है। जबकि खुद के सुख को दूसरों तक पहुंचाते रहने के प्रयत्न करते रहना यही सुख को सुरक्षित कर देने का श्रेष्ठ उपाय है।
दु:ख की बात हम बाद में करेंगे।
पहले यह बताओ कि जब भी जीवन में सुख आता है तो उसे संग्रहित करने का मन होता है या उसको सदुपयोग करने का ?
उसे रखने का मन होता है या सभी को बांटते रहने का ?
अपने सुख से दूसरों को सुखी बनाते रहने का मन होता है या ईर्ष्या करवाते रहने का मन होता है ?
याद रखना,
जमीन में बीज बोने वाला किसान वास्तव में तो स्वयं को ही श्रीमंत बना रहा होता है। पौधे को पानी का सिंचन करने वाला माली वास्तव में स्वयं के लिए ही फूल की सुगंध का ” रिजर्वेशन ” करा रहा होता है।
दीये में तेल डालने वाला व्यक्ति वास्तव में तो स्वयं के लिए ही प्रकाश को सुरक्षित कर रहा होता है।
बस, इसी तरह दूसरों को सुखी करने के प्रयत्न करने वाला इंसान हकीकत में तो खुद के सुख को सुरक्षित कर रहा होता है।
प्रकृति के इस नियम पर यदि हमें विश्वास हो जाएगा तो फिर सुख के संग्रह की बुद्धि जागृत हो जाएगी।
मकरंद दवे ने इस पंक्ति में कितनी सुंदर बात कही है –
” फूल देखकर पागल बनने वाले तुम,
करो कुछ ऐसा कि फूल तुम्हें देख कर पागल बन जाए “