मन के दो बहुत बड़े दोष हैं –
स्व के प्रति आदर भाव और पर के प्रति नफरत भाव।
स्व के प्रति आदर भाव इसलिए कि उसे अहंकार को पुष्ट करना है। और पर के प्रति नफरत के भाव इसलिए कि उसे द्वेष को और पुष्ट और पक्का करना है।
यह कब संभव हो सकता है ?
जब वह सद्गुण स्वयं में देखता है, और दुर्गुण सामने वाले में देखता है, लेकिन यह वृत्ति – प्रवृत्ति अत्यंत घातक है।
क्योंकि,
निरंतर पुष्ट होने वाला अहंकार किसी का मित्र बनने के लिए तैयार नहीं है और सतत पुष्ट होने वाला द्वेषभाव किसी को मित्र बनने नहीं देगा।
किसी को मित्र बनाना नहीं और किसी के मित्र बनना नहीं है यह मानसिकता बन जाने के बाद जीवन में क्या बचता है ?
याद रखना,
फटे हुए दूध से मावा बन सकता है,
कठोर पत्थर से प्रतिमा बन सकती है,
पुराने कपड़ों से बर्तन मिल सकते हैं,
पुरानी रद्दी के पैसे मिल सकते हैं पर कठोर एवं कृतध्न बन गए ह्रदय से कुछ भी अच्छा नहीं बनता, कुछ भी अच्छा नहीं मिलता। इस बुराई से स्वयं को मुक्त करना है ?
यदि हां, तो दो काम विशेष रूप से करो –
” दूसरा ” जब भी आंखों के सामने आये उसमें रहे सद्गुण देखो।
सद्गुण ने दिखे तो सद्गुण ढूंढो।
सागर में मोती शायद न भी मिलते हों लेकिन इस दुनिया में एक भी व्यक्ति तुम्हें ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें तुम्हें ढूंढने के बावजूद कोई भी सद्गुण ना मिले।
दूसरी बात –
स्वयं की और जब भी दृष्टि जाए तब अपने दुर्गुण देखो क्योंकि हम छद्मस्थ हैं।
कल्पनातीत दुर्गुण लिए बैठे हैं।
किसी भी कारण से हमारे दुर्गुण दूसरों के को भले ही न दिखते हो फिर भी स्वयं के दुर्गुणों की जानकारी हमें न हो यह तो संभव ही नहीं है।
संक्षिप्त में,
सामने वाले में सद्गुण ढूंढे, उनके प्रति नफरत भाव का स्थान सद्भाव ले लेगा। दुर्गुण स्वयं में देखो, अहंकार का स्थान नम्रता ले लेगी। जीवन की बहुत बड़ी जंग हम जीत जाएंगे।