किसी भी सत्कार्य में प्रवृत्त होने की बात आती है तब नि:सत्व मन यह दलील करता है कि यह सत्कार्य संभव तो है, पर कठिन है। जबकि सात्विक मन यह दलील करता है कि यह सत्कार्य भले ही कठिन है, पर संभव है।
जो नि:सत्व मन वाला है वह सत्कार्य प्रारंभ ही नहीं करता और शायद प्रारंभ कर भी दे तो उसमें कठिनाई का अनुभव होते ही कार्य को छोड़ देता है। जबकि, जो सात्विक मन वाला है वह सत्कार्य प्रारंभ तो करता ही है पर उसमें चाहे जितनी परेशानियां आने पर भी सत्कार्य जारी रखता है।
कमाल का आश्चर्य तो तब होता है जब आरंभ में अत्यंत कठिन लग रहा सत्कार्य बार-बार के अभ्यास से अत्यंत सरल बन जाता है।
इसका अर्थ ?
यही कि जो सत्कार्य तुम्हें आज कठिन लगता है उसे यदि तुम सरल बना देना चाहते हो तो उस सत्कार्य को अभ्यास का विषय बना दो।
बार – बार उस कार्य को तुम करते रहो। फिर देखो वह किस हद तक सरल बन जाता है ! यह पंक्ति तो पड़ी है ना ?
” रस्सी आवत जात है,
शील पर पडत निशान,
करत – करत अभ्यास के,
जड़मति होत सुजान “
रस्सी बार-बार पत्थर पर आती है और जाती है तो पत्थर पर भी यदि निशान पड़ जाता है तो मनुष्य कितना भी जड़मति क्यों ना हो, बार-बार के सम्यक अभ्यास से वह भी विद्वान बन जाता है।
और एक महत्वपूर्ण बात –
काफी समय तक पानी में रहे हुए कपड़े को तुम एक ही बार निचोड़ो।
कपड़ा पानी रहित नहीं हो जाएगा।
तुम्हें बार-बार निचोडना पड़ेगा।
बस इसी तरह,
तुम यदि नर से नारायण बनना चाहते हो तो एक आध बार की एकाध साधना से उस स्थिति तक नहीं पहुंच सकते।
तुम्हें उन साधनाओं को लगातार जारी रखना पड़ता है। और वह भी रुचि सहित। ऐसा करने पर ही ” नारायण ” बनने का तुम्हारा सपना सार्थक हो सकेगा।
अंतिम बात,
जितनी चाहिए उतने व्यक्ति मिल जाते हैं, परंतु
जैसे चाहिए वैसे व्यक्ति ?