उदयाचल के सूर्य को देख कर मन में एक प्रकार की प्रसन्नता छा जाती है और अस्ताचल के सूर्य दर्शन से मन में एक प्रकार की उदासी छा जाती है।
कारण ?
उदयाचल का सूर्य विकसित हो रहा है। अस्ताचल का सूर्य संकुचित हो रहा है।
प्रश्न सूर्य के विकसित – संकुचित होने का नहीं है, हमारे हृदय के विकसित – संकुचित होने का है ।
हृदय यदि गंभीरता, उदारता और कृतज्ञता के गुणों से हरा – भरा है तो समझ लेना कि हृदय विकसित हो चुका है और हृदय यदि क्षुद्रता, कृपणता और कृतध्नता का शिकार हो रहा है तो समझ लेना कि हृदय संकुचित हो चुका है।
और जीवन का अर्थ ही है विकसित होना और मृत्यु का अर्थ ही है संकुचित होना।
एक जीवन शरीर का होता है और एक मृत्यु शरीर की होती है। उस जीवन और मृत्यु का संबंध सद्गुणों के साथ नहीं होता, सांस के साथ होता है। सांस चलती है तब तक शरीर जीवित माना जाता है और सांस बंद हो जाती है तब जीवन की समाप्ति मानी जाती है, परंतु एक जीवनी वह है कि इसका संबंध सांस के साथ नहीं पर सद्गुणों के साथ है। एक मृत्यु वह है जिसका संबंध सांस के समाप्ति के साथ नहीं पर सद्गुणों की समाप्ति के साथ है।
खेद की बात यह है कि हमें सांस केंद्रित जीवन – मृत्यु की जितनी चिंता है उसके लाखवें हिस्से की चिंता भी सद्गुणकेंद्रित जीवन – मृत्यु की नहीं है और इसी का कारण यह दुष्परिणाम है कि जीवन में चलता – फिरता नरकंकाल बन गया है। सुवास बिना के पुष्प को तो लोग फिर भी चाहते होंगे, पर सद्गुण बिना के जीवन को कोई नहीं चाहता।
इतना ही कहूंगा कि शरीर रूपी जीवन के लिए तो गधा भी सावधान रहता है,
हम सद्गुण रुपी जीवन के लिए सावधान बन जाए।
निहाल हो जाएंगे।