वृक्ष की जड़े जैसे जमीन में होती हैं, मैं देख रहा हूं कि मनुष्य की जड़ें भी वैसे ही संसार में फंसी हुई है।
व्यक्ति अभी तक अपने जीवन का कोई मार्ग तय नहीं कर पाया है। वह चला जा रहा है, क्योंकि चलने का रास्ता सामने है। जीवन के प्रति लोगों का कोई साफ – साफ दृष्टिकोण नहीं है कि वे कहां पहुंचना चाहते हैं, क्या बनना चाहते हैं, क्या पाना चाहते हैं और जिंदगी में क्या होना चाहते हैं।
जैसे – जैसे वृक्ष बड़ा होता है, उसकी जड़ें गहरी होती हैं, वैसा ही मनुष्य के भी साथ होता है। वह जैसे – जैसे उम्र से बढ़ता जाता है उसकी जड़ें भी संसार में गहरी होती जाती हैं। परिणामत: जो व्यक्ति शांति पाने की कोशिश करता है, उसे अशांति मिलती है। जो मुक्ति पाने की कोशिश करता है, उसे संसार की धारा मिलती है। व्यक्ति जो महानताओं को पाना चाहता है, क्षुद्र तत्व और वस्तुओं के मायाजाल में उलझकर रह जाता है।
आज व्यक्ति के लिए धर्म पूजा-पाठ और आराधना का निमित्त तो जरूर है पर यह बाह्य धर्म मनुष्य के मन को शांति नहीं दे पा रहा है।
देखता हूं, चालीस साल तक का मंदिर में पूजा करने वाला व्यक्ति कहता है – क्या बताऊं,
मन में अभी भी शांति नहीं है। ये वर्षों से सामायिक करने वाले भाई-बहनें भी यह कह रहे हैं कि मन में शांति नहीं है। और तो और तीस साल से संत का जीवन जीने वाला व्यक्ति भी इसी उधेड़बुन में है कि मन में शांति नहीं है। धर्म तो वास्तव में जीवन को सुख और शांति से जीने की कला ही देता है।
व्यक्ति के जीवन की निर्मलता में ही धर्म और शांति छिपी है। जितना साफ सुथरा घर के देवालय या मंदिर के मूल गर्भगृह को रखने की कोशिश करते हैं, हम अपने जीवन के देवालय को भी उतना ही निर्मल और साफ रखें क्योंकि यह सारी धरती परमात्मा का तीर्थ है, हमारा शरीर परमात्मा का मंदिर है और इस शरीर के भीतर विद्यमान आत्म – तत्व की परमात्म – ज्योति है।
इमानदारी से जरा अपने आप को टटोलें। कहने को बाह्य रूप से व्यक्ति ईमानदार होता है लेकिन बेईमानी का मौका मिलने पर आदमी चुकता नहीं है।
अगर हम अपना आत्मावलोकन करें तो पाएंगे कि हमारी मन: स्थिति क्या है,
हमारी मानसिकता कैसी है,
हमारे कर्म कैसे हैं,
हमारी दृष्टि कैसी है,
हम कैसे काम कर रहे हैं,
किस तरह का व्यवसाय कर रहे हैं,
हमारे जीवन में कितना अंधेरा छाया है। दुनिया में एक गंगा वह है जो कैलाश पर्वत के गोमुख से निकलकर आती है। हम उस गंगा को निर्मल कहते हैं। मैं चाहता हूं कि व्यक्ति का जीवन भी इतना ही निर्मल बन जाए कि उसे निर्मल बनाने के लिए किसी गंगा या शत्रुंजय नदी में स्नान करने की आवश्यकता ना पड़े। उसका अपना जीवन ही गंगा की तरह निर्मल हो जाए, पवित्र हो जाए।