किसी से संपत्ति मिलती है तो वह संपत्ति शायद जीवन – व्यवहार चलाने में सहायक बनती है।
किसी से भोजन मिलता है तो वह भोजन शायद जीवन को टिकाने के लिए सहायक बनता है।
किसी से दवाई मिलती है तो वह दवाई शायद शरीर को रोगमुक्त करने में सहायक बनती है।
पर, किसी से सम्यक् समझ देने वाला अक्षर ज्ञान मिलता है तो वह अक्षर ज्ञान जीवन का सम्यक् विकास करने में सहायक बनता है। और इसीलिए ऐसे अक्षर ज्ञान देने वाले का उपकार हमेशा स्मृति पटल पर सदा के लिए अंकित हो जाता है।
जवाब दो –
पचास लाख की गाड़ी मुफ्त में मिल जाए पर गाड़ी चलाने की सम्यक् समझ ना मिली हो तो ?
करोड़ों की कीमत का हीरा रास्ते पर मिल गए जाए लेकिन उस हीरे की कीमत की कोई समझ ना हो तो ?
अरे ! आत्मा को परमात्मा बनाने की प्रचंड क्षमता रखने वाला मानव जीवन प्राप्त हो जाए और उस जीवन की महत्ता की कोई सम्यक् समझ ना मिली हो तो ?
संक्षिप्त में,
सुख का कहो या सद्गुण का कहो, एकमात्र आधार हो तो वह सम्यक् समझ है। और इस सम्यक् समझ का स्वरूप कहो तो वह है अक्षर ज्ञान ।
यह अक्षर ज्ञान जिससे भी मिला है उसके प्रति हृदय में आदर भाव होना ही चाहिए। परंतु,
विडंबना यह है कि
वर्तमान युग को उपासना में इतनी रुचि नहीं है जितनी रुचि उपयोग में है। वस्तु का तो वह उपयोग करता ही है साथ ही व्यक्ति का भी वह उपयोग ही करता है।
वस्तु निरूपयोगी होते ही वह या तो उसे फेंक देता है या उसे भूल जाता है।
बस इसी तरह,
व्यक्ति का उपयोग करने के बाद वह या तो उससे दूर हो जाता है या फिर उसे भूल जाता है।
पांच दिन पहले किसी के द्वारा दी हुई गाली उसके स्मृति पटल पर ज्यों की त्यों है,
पर पांच वर्ष पहले किसी का लिया हुआ उपकार वह भूल गया है।
खैर, युग को हम बदल नहीं सकते, पर स्वयं को अवश्य बदल सकते हैं। एक काम करें – जिनके भी उपकार लिए हैं, उन सब की सूची बनाएं,
आंखें आश्चर्य से फटी की फटी रह जाएंगी।