पेट में जैसे भोजन जाना ही चाहिए, वैसे मल त्याग भी होना ही चाहिए।
शरीर में जैसे पानी जाना ही चाहिए, वैसे पेशाब त्याग भी होना ही चाहिए।
घर में जैसे एक खिड़की से हवा का प्रवेश होना ही चाहिए, वैसे दूसरी खिड़की से हवा बाहर भी निकलनी ही चाहिए।
अरे, पूजा में जैसे आवाहन मुद्रा द्वारा देवताओं को आने का आमंत्रण देना चाहिए वैसे विसर्जन मुद्रा द्वारा उन्हें स्वस्थान पर पहुंचने की विनंती भी होनी ही चाहिए। संक्षिप्त में,
जीवन में अर्जन और संग्रह चाहे जितने महत्वपूर्ण हो पर साथ ही साथ यदि त्याग ना हो तो जीवन गौरवप्रद बनने के बदले कलंकप्रद बन जाता है।
एक बात याद कराऊं ?
जिनके हाथ में पत्थर थे दुनिया ने उनका स्वागत नहीं किया, दुनिया ने उन्हीं का स्वागत किया है जिनके हाथ में पुष्प थे। जिनकी नाव में छिद्र थे उनका दुनिया ने सम्मान नहीं किया है, जिनकी तिजोरी में छिद्र थे उन्हीं का इस दुनिया ने सम्मान किया है।
जो अमीर थे उनके पुतले चौराहों पर नहीं लगाए गए हैं, जो उदार थे उन्हीं के पुतले चौराहों पर लगाए गए हैं।
एक वास्तविकता दृष्टि के समक्ष रखना।
बंद मुट्ठी के साथ तुम शायद ज्यादा से ज्यादा चौबीस मिनट रह सकते हो, पर खुली मुट्ठी के साथ तुम चौबीस घंटे सरलता से गुजार सकते हो।
एड़ी पर तुम ज्यादा – से – ज्यादा पांच मिनट खड़े रह सकते हो, पर एड़ी और पंजे के बल पर तुम पचास घंटे खड़े रह सकते हो।
भोग में तुम सतत दो घंटे नहीं रह सकते, पर त्याग में तुम प्रसन्नता पूर्वक दो सौ दिन गुजार सकते हो।
यह वास्तविकता यही इंगित करती है कि भोग हमारा स्वभाव नहीं है बल्कि त्याग हमारा स्वभाव है।
प्रश्न जो है वह यह है –
मृत्यु जब हम से सब – कुछ छुड़वा देगी तब मजबूरी में छोड़ेंगे या फिर मृत्यु आने से पहले समझदारी दर्शाकर बहादुर से त्याग करेंगे ?
इतना ही कहूंगा कि बर्खास्त होने में कलंक है, इस्तीफा देने में गौरव !
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