हकीम लुकमान के जीवन से जुडी घटना है।
जब वे मृत्यु शैय्या पर अंतिम सांस ले रहे थे तो उन्होंने अपने पुत्र को पास बुला कर कहा – बेटा मैं जाते – जाते एक अंतिम महत्वपूर्ण शिक्षा देना चाहता हूँ। इतना कहकर लुकमान ने पुत्र से धूपदान लाने के लिए कहा। जब वह धूपदान लेकर आया तो लुकमान ने उसमें से चुटकी भर चंदन लेकर उसके हाथ में थमाया और संकेत से उसे कोयला लाने के लिए कहा। जब पुत्र कोयला लेकर आया तो उन्होंने दूसरे हाथ में कोयले को रखने का आदेश दिया।
कुछ देर बाद फिर लुकमान ने कहा – अब इन्हें अपने – अपने स्थान पर वापस रख आओ। पुत्र ने वैसा ही किया। उसकी जिस हथेली में चंदन था , वह उसकी सुगंध से अब भी महक रही थी और जिस हाथ में कोयला था , वह हाथ काला दिखाई पड़ रहा था। लुकमान ने पुत्र को समझाया – बेटे अच्छे व्यक्तियों का साथ चंदन जैसा होता है। जब तक उनका साथ रहेगा , तब तक तो सुगंध मिलेगी ही , किंतु साथ छूटने के बाद भी उनके सदविचारो की सुवास से जिंदगी तरोताजा बनी रहेगी।
जबकि दुर्जनों का साथ कोयले जैसा है। कुसंगति से प्राप्त कुसंस्कारो का प्रभाव आजीवन बना रहता है। इसलिए बेटा , जीवन मेँ सदैव चंदन जैसे संस्कारी व्यक्ति के साथ ही रहना और कोयले जैसे कुसंग से दूर रहना। शायद इसीलिए कहा गया है – ‘ चन्दन की चुटकी भली ,गाड़ी भरा न काठ ‘ अर्थात् चंदन की चुटकी भी मन को उल्लास से भर देती है , जबकि गाड़ी भर लकड़ी भी इस कार्य को संपन्न नहीं कर सकती।
लुकमान का पुत्र अपने पिता की इस अंतिम शिक्षा को जीवन भर नहीं भूला और उनके दिखाए मार्ग पर चलकर सदैव सुखी रहा।लुकमान का यह जीवन दर्शन सत्संग की महिमा को प्रतिस्थापित करता है।