देवता और असुरों का युद्ध बहुत दिन चलता रहा। असुर तगड़े पड़े। देवता अपनी सज्जनता वश उतनी धूर्तता बरत न पाते थे जितने निश्शंक होकर असुर छल करते थे। वृत्तासुर के नेतृत्व में असुरों की विजय दुंदभी बजने लगी।
निराश देवता ब्रह्माजी के पास पहुँचे और पूछा – भगवन् विजय के लिए हम किस अस्त्र का प्रयोग करें ? ब्रह्माजी ने कहा – ” धातुओं से बने अस्त्र उतने प्रभावशाली नहीं हो सकते जितने तप और त्याग से बने आयुध प्रभावशाली होते हैं। तपस्वी की हड्डियों से ही वज्र बनाया जा सकता है। यदि तुम लोग तप त्याग विनिर्मित वज्र बना सको तो जीत तुम्हारी ही होगी। जाओ इसके लिए प्रयत्न करो। ’’
देवता तपस्वी को तलाश करने लगे और उसकी हड्डियाँ प्राप्त करने का उपाय सोचने लगे। अभीष्ट वस्तु की तलाश में उन्होंने गिरि , कानन और कंदराओं की तलाश करना प्रारंभ कर दिया।
महर्षि दधीचि अपनी दिव्य दृष्टि से इस कौतुक को देख रहे थे। उन्होंने देवताओं को पास बुलाया और प्रेमपूर्वक अपनी हड्डियाँ देने के लिए शरीर का परित्याग कर दिया।तपस्वी दधीचि का अस्थियों से वज्र बना। वृत्तासुर मारा गया और उसकी सेना परास्त हुई।
तब से देवताओं का सर्वश्रेष्ठ आयुध इंद्र का वज्र माना जाने लगा।
विजयोल्लास मनाने के लिए एकत्रित हुई देवसभा में गुरु बृहस्पति ने कहा – देवताओं विजय का स्थायित्व शक्ति पर निर्भर है और शक्ति आयुधों से नहीं तप – त्याग से भरी रहती है। यदि तुम सदैव अपराजित रहना चाहते हो तो तप और त्याग की शक्ति एकत्रित करो। इसमें प्रमाद करोगे तो फिर कभी कोई वृत्तासुर तुम्हें परास्त करने आ खड़ा होगा। दधीचि की माँगी हुई हड्डियों से कब तक काम चलेगा। तुम में हर एक को वज्र बनने के लिए दधीचि जैसा आत्मबल एकत्रित करना चाहिए। ’’
देवताओं ने वस्तुस्थिति को समझा और सुरगुरु के आदेशानुसार आत्मनिर्माण का प्रयत्न आरंभ कर दिया।