एक दरोगा संत दादू की ईश्वर भक्ति और सिद्धि से बहुत प्रभावित था। उन्हें गुरु मानने की इच्छा से वह उनकी खोज में निकल पड़ा।
लगभग आधा जंगल पार करने के बाद दरोगा को केवल धोती पहने एक साधारण – सा व्यक्ति दिखाई दिया। वह उसके पास जाकर बोला , ” क्यों बे तुझे मालूम है कि संत दादू का आश्रम कहाँ है ? ”
इस पर भी जब वह व्यक्ति मौन धारण किए अपना काम करता ही रहा तो दरोगा ने आग बबूला होते हुए एक ठोकर मारी और आगे बढ़ गया।
थोड़ा आगे जाने पर दरोगा को एक और आदमी मिला। दरोगा ने उसे भी रोक कर पूछा , ” क्या तुम्हें मालूम है संत दादू कहाँ रहते है ? ” ” उन्हें भला कौन नहीं जानता , वे तो उधर ही रहते हैं जिधर से आप आ रहे हैं। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर उनका आश्रम है। मैं भी उनके दर्शन के लिए ही जा रहा था। आप मेरे साथ ही चलिए।”
वह व्यक्ति बोला। दरोगा मन ही मन प्रसन्न होते हुए साथ चल दिया। राहगीर जिस व्यक्ति के पास दरोगा को ले गया उसे देख कर वह लज्जित हो उठा क्यों संत दादू वही व्यक्ति थे जिसको दरोगा ने मामूली आदमी समझ कर अपमानित किया था। वह दादू के चरणों में गिर कर क्षमा माँगने लगा। बोला , ” महात्मन् मुझे क्षमा कर दीजिए , मुझसे अनजाने में अपराध हो गया। ”
दरोगा की बात सुनकर संत दादू हँसते हुए बोले , ” भाई , इसमें बुरा मानने की क्या बात ? कोई मिट्टी का एक घड़ा भी ख़रीदता है तो ठोक बजा कर देख लेता है। फिर तुम तो मुझे गुरु बनाने आए थे। ” संत दादू की सहिष्णुता के आगे दरोगा नतमस्तक हो गया।