एक पुजारी थे। लोग उन्हें अत्यंत श्रद्धा एवं भक्ति – भाव से देखते थे। पुजारी प्रतिदिन सुबह मंदिर जाते और दिन भर वहीं यानी मंदिर में रहते।
सुबह से ही लोग उनके पास प्रार्थना के लिए आने लगते। जब कुछ लोग इकट्ठे हो जाते , तब मंदिर में सामूहिक प्रार्थना होती। जब प्रार्थना संपन्न हो जाती , तब पुजारी लोगों को अपना उपदेश देते।
उसी नगर एक गाड़ीवान था। वह सुबह से शाम तक अपने काम में लगा रहता। इसी से उसकी रोजी – रोटी चलती। यह सोच कर उसके मन में बहुत दु:ख होता कि मैँ हमेशा अपना पेट पालने के लिए काम धंधे में लगा रहता हूँ , जबकि लोग मंदिर में जाते है और प्रार्थना करते हैं।
मुझ जैसा पापी शायद ही कोई इस संसार में हो। मारे आत्मग्लानि के गाड़ीवान ने पुजारी के पास पहुंचकर अपना दु:ख जताया। ‘ पुजारी जी! मैं आपसे यह पूछने आया हूँ कि क्या मैं अपना यह काम छोड़ कर नियमित मंदिर में प्रार्थना के लिए आना आरंभ कर दूँ। ‘
पुजारी ने गाड़ीवान की बात गंभीरता से सुनी। उन्होंने गाड़ीवान से पूछा ,’ अच्छा , तुम यह बताओ कि तुम गाड़ी में सुबह से शाम तक लोगों को एक गांव से दूसरे गांव तक पहुंचाते हो।
क्या कभी ऐसे अवसर आए हैं कि तुम अपनी गाड़ी में बूढ़े , अपाहिजों और बच्चों को मुफ्त में एक गांव से दूसरे गांव तक ले गए हो ? गाड़ीवान ने तुरंत ही उत्तर दिया , ‘ हां पुजारी जी ! ऐसे अनेक अवसर आते हैं। यहां तक कि जब मुझे यह लगता है कि राहगीर पैदल चल पाने में असमर्थ है , तब मैं उसे अपनी गाड़ी में बैठा लेता हूँ। ‘
पुजारी गाड़ीवान की यह बात सुनकर अत्यंत उत्साहित हुए। उन्होंने गाड़ीवान से कहा ,’ तब तुम अपना पेशा बिल्कुल मत छोड़ो। थके हुए बूढ़ों ,अपाहिजों , रोगियों और बच्चों को कष्ट से राहत देना ही ईश्वर की सच्ची प्रार्थना है।
सच तो यह है कि सच्ची प्रार्थना तो तुम ही कर रहे हो।’ यह सुनकर गाड़ीवान अभिभूत हो उठा।