एक बार का पुराना प्रसंग है। चारों ओर सूखा पडा था। अकाल था। कुछ खाने को नहीं मिल रहा था। एक परिवार को कई दिन इसी प्रकार भुखमरी मैं काटने पड़े। परिवार के लोग आसन्न – मरण बन गये।
एक दिन उन्हें जौ का आटा मिला। परिवार ने सोचा , इसकी पांच रोटियां बनाएंगे। चारों एक – एक खा लेंगे। पांचवी , भगवान को अर्पण करेंगें।
रोटियां बनीं। वे भोजन प्रारंभ करने जा रहे थे कि एक बुभुक्षित की आवाज सुनी। देखा – एक नरकंकाल खड़ा था। गृहस्वामी ने उसे अपनी रोटी दे दी। पर उसकी क्षुधा शांत नहीं हुई। उसने और रोटी मांगी तो पत्नी ने , फिर पुत्र ने और अंत में पुत्रवधू ने भी अपनी रोटी दे दी। चारों ने अपने हिस्से की रोटी दी। वह तृप्त होकर चला गया।
खाने की वस्तु सामने थी , पर उसे दूसरे की भूख मिटाने के लिये देकर , वे चारों संतोष से मर गये।
कहते हैं , कुछ समय बाद वहां एक नेवला आया। उसके शरीर में वहां गिरे कुछ दाने लग गये। उससे उसका आधा शरीर स्वर्णमय हो गया। उसी समय आकाशवाणी हुई , “ ऐसी धूलि और कहीं मिले तो उसका शेष शरीर भी सुवर्णमय हो जावेगा। ” पर वैसा नहीं हो पाया।
आखिर वह नेवला , उस स्थान पर गया जहां युधिष्ठिर , अपने यज्ञ की समाप्ति के बाद , विचार करते हुए बैठे थे। नेवले ने वहां जाकर कहा , “ यह तुम्हारा यज्ञ व्यर्थ है। धिक्कार है। ” युधिष्ठिर ने पूछा , “ ऐसा क्यों ? ” तो नेवले ने सारी कथा सुनाई। उसने कहा , यहां आकर भी उसका शेष शरीर स्वर्ण का नहीं बना , अतः यह यज्ञ व्यर्थ है।