अग्नि में तपने का दु:ख घड़े को, मजबूती का सुख देता है।
ऑपरेशन का दु:ख मरीज को, स्वास्थ्य का सुख प्रदान करता है।
प्रसूति का दु:ख स्त्री को, पुत्र दर्शन का सुख देता है।
आग में तपने का दु:ख स्वर्ण को, विशुद्धि का सुख देता है।
प्रश्न यह है कि दु:ख में हमें विहृलता के दर्शन होते हैं या तपस्या के ?
दु:ख के प्रति हमारी शत्रु दृष्टि है या मित्रदृष्टि?
संपत्ति में वस्तु को, सत्ता को, सौंदर्य को यावत् व्यक्ति को खरीदने की क्षमता निहित है इस बात का तो हमें ख्याल है, पर दु:ख में सद्गुणों को, समाधि को, सद् गति को यावत् परम परमगति को खरीदने की क्षमता निहित है इस बात का हमें ख्याल है भला ? याद रखना,
इस दुनिया में सुख ने जितने व्यक्तियों को सज्जन बनाया है उससे कई गुना अधिक व्यक्तियों को दु:ख ने सज्जन बनाया है।
सुखी मनुष्य ने दुनिया को यदि युद्धों की भेंट दी है तो दु:खी मनुष्यों ने दुनिया को शांति और सौहार्द्र की साम्राज्य की सौगात दी है।
इसीलिए तो कहा गया है कि
” दु:खम् जन्तो: परम धनम् “
अर्थात् दु:ख मनुष्य का श्रेष्ठकोटि का धन है। यद्यपि, उसे सहन करना आए तो !
उसे पहचान ना आए तो !
और उसका सदुपयोग करना आए तो !
पर विडंबना यह है कि मनुष्य दु:ख को
” जीवन – विरोधी ” मान बैठा है और इसीलिए जब दु:ख आता है तब उसे दूर ढकेल देता है, इतना ही नहीं, जीवन में कभी दु:ख आए ही नहीं उस दिशा में वह उठापटक करता रहता है !
इन पंक्तियों में दिए गए संदेश को हमें आंखों के समक्ष रखने की आवश्यकता है –
” समाज में प्रवर्तमान सबसे बड़ा मिथक यह है कि हमें हमेशा सुखी, संतृप्त और सुरक्षित ही रहना चाहिए, मानो पीड़ा, प्यास और असुरक्षितता आदि जीवन – विरोधी हो !” दुनिया की बात छोड़ो दो ।
कम से कम हम तो दु:ख में ” धन ” के दर्शन करना प्रारंभ कर दें और उसके माध्यम से दुर्लभ सद्गुणों की कमाई प्रारंभ कर दें।