महाभारत में लिखा है – ‘ धर्मो रक्षति रक्षित:। ‘ मनुष्य धर्म की रक्षा करे तो धर्म भी उसकी रक्षा करता है। यह विनियम का सिद्धांत है। संसार में ऐसा व्यवहार चलता है।
भौतिक सुख की चाह में लोग धर्म की ओर प्रवृत्त होते हैं। कुछ देने की मनौतियां – वायदे होते हैं , स्वार्थो का सौदा चलता है। पाप को छिपाने के लिए पुण्य का प्रदर्शन किया जाता है।
यदि ऐसा होता है , तो धर्म से जुड़ी हर परंपरा , प्रयत्न और परिणाम गलत हैं , जो हमें साध्य तक नहीं पहुंचने देते। आचार्य तुलसी ने इसीलिए ऐसे धर्म को आडंबर माना।
‘ धर्मो रक्षति रक्षित: ‘ – यह एक बोधवाक्य है , जीवन का वास्तविक दर्शन है। मनुष्य की धार्मिक वृत्ति उसकी सुरक्षा करती है , यह व्याख्या सार्थक है। ऐसा इसलिए क्योंकि वास्तव में धर्म का न कोई नाम होता है और न कोई रूप।
व्यक्ति के आचरण , व्यवहार या वृत्ति के आधार पर ही उसे धार्मिक या अधार्मिक होने का प्रमाणपत्र दिया जा सकता है। धार्मिक व्यक्ति के जीवन में किसी प्रकार का कष्ट नहीं आता , उसे बुढ़ापा , बीमारी या आपदा का सामना नहीं करना पड़ता , ऐसी बात नहीं है।
धार्मिक व्यक्ति के जीवन में भी बुढ़ापे का समय आता है , लेकिन उसे वह सताता नहीं है। बीमारी आती है , पर उसे व्यथित नहीं कर पाती।
आज मनुष्य अनेक प्रकार की समस्याओं से घिरा है। कभी वह बीमारी की समस्या से जूझता है तो कभी उसे वृद्धावस्था सताती है , कभी वह मौत से घबराता है तो कभी व्यवसाय की असफलता का भय उसे बेचैन करता है।
कभी अपयश का भय उसे तनावग्रस्त कर देता है और भी न जाने कितने प्रकार हैं भय है। मनुष्य इन सब समस्याओं से निजात चाहता है।
हर इंसान की कामना रहती है कि उसके समग्र परिवेश को ऐसा सुरक्षा कवच मिले , जिससे वह निश्चिंत होकर जी सके , समस्यामुक्त होकर जी सके। जीवन एक संघर्ष है। इसे जीतने के लिए धर्मरूपी शस्त्र जरूरी है। इसलिए दुनिया का हर धर्म इंसान को इंसान से जोड़ने का काम करता है।