गुरुकुल का प्रवेशोत्सव समाप्त हो चुका था , कक्षाएँ नियमित रूप से चलने लगी थीं। योग और अध्यात्म पर कुलपति स्कंधदेव के प्रवचन सुनकर विद्यार्थी बड़ा संतोष और उल्लास अनुभव करते थे।
एक दिन प्रश्नोत्तर – काल में शिष्य कौस्तुभ ने प्रश्न किया – गुरुदेव क्या ईश्वर इसी जीवन में प्राप्त किया जा सकता है ? ’’
स्कंध एक क्षण चुप रहे । कुछ विचार किया और बोले – इस प्रश्न का उत्तर तुम्हें कल मिलेगा और हाँ आज सायंकाल तुम सब लोग निद्रादेवी की गोद में जाने से पूर्व १०८ बार वासुदेव मंत्र का जप करना और प्रातःकाल उसकी सूचना मुझे देना। ’’
प्रातःकाल के प्रवचन का समय आया। सब विद्यार्थी अनुशासनबद्ध होकर आ बैठे। कुलपति ने अपना प्रवचन प्रारंभ करने से पूर्व पूछा – तुममें से किस – किस ने कल सायंकाल सोने से पूर्व कितने – कितने मंत्रों का उच्चारण किया। ’’
सब विद्यार्थियों ने अपने – अपने हाथ उठा दिए। किसी ने भी भूल नहीं की थी। सबने १०८-१०८ मंत्रों का जप और भगवान् का ध्यान कर लिया था।
किन्तु ऐसा जान पड़ा कि स्कंधदेव का हृदय क्षुब्ध है , वे संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई कौस्तुभ नहीं था , उसे बुलाया गया। स्कंधदेव ने अस्त – व्यस्त कौस्तुभ के आते ही प्रश्न किया – कौस्तुभ क्या तुमने भी १०८ मंत्रों का उच्चारण सोने से पूर्व किया था। ’’
कौस्तुभ ने नेत्र झुका लिए , विनीत वाणी और सौम्य मुद्रा। उसने बताया – गुरुदेव अपराध क्षमा करें , मैंने बहुत प्रयत्न किया किंतु जब जप की संख्या गिनने में चित्त चला जाता तो भगवान् का ध्यान नहीं रहता था और जब भगवान् का ध्यान करता तो गिनती भूल जाता। रात ऐसे ही गई और वह व्रत पूर्ण न कर सका। ’’
स्कंधदेव मुस्कराए और बोले – बालकों कल के प्रश्न का यही उत्तर है। जब संसार के सुख , सम्पत्ति भोग की गिनती में लग जाते हैं तो भगवान् का प्रेम भूल जाता है। उसे तो कोई भी पा सकता है , बाह्य कर्मकाण्ड से चित्त हटाकर उसे कोई भी प्राप्त कर सकता है। ’’