भिशक अनंगपाल के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। वे जिस जल से स्नान करते थे , उसमें तो प्रत्येक ही दिन कोई न कोई इत्र , चंदन , अगरु , केवड़ा या गुलाब की सुवास मिलाई जाती थी पर जो मादकता और मधुरता आज के जल में थी , वह कभी भी नहीं मिली थी।
विस्मित महाराज भिशक अनंगपाल ने परिचारिका को बुलाया और पूछा – आज जल – कलश में कौन सी सुवास मिलाई गई है। ’’
परिचारिका किसी अज्ञात भय से स्तब्ध हो गई। उसने कहा – क्षमा करें , महाराज! आज एक नई परिचारिका , जो कल ही नियुक्त की गई है , ने स्नान का प्रबंध किया था , आज्ञा हो तो सेवा में उसे ही उपस्थित करूँ। ’’
महाराज भिशक अनंगपाल ने उस दूसरी परिचारिका को बुलाकर पूछा तो वह सहास कर बोली – महाराज उस जल में तो कुछ भी नहीं मिलाया गया। हाँ , वह जल में स्वयं ही अपने साथ अपने मायके से लाई थी। ’’
महाराज की उत्सुकता और भी बढ़ी , उन्होंने पूछा – बताओ परिचारिके तुम्हारा पितृगृह कहाँ हैं क्या यह जल किसी कुएँ का है या पद्म पुष्पित किसी सरोवर का है? ’’
नहीं , नहीं महाराज! ऐसे किसी स्थान का जल नहीं था वह। मेरा घर गंधमादन पर्वत की तलहटी पर है और यह जल जो मैं अपने साथ लाई थी । ‘‘ वह तुम्हारे पिता का तैयार किया हुआ है भद्रे ! अच्छा यह तो बताओ , तुम्हारे पिता गंधी तो नहीं हैं ’’ महाराज ने बीच में बात काटते हुए पूछा।
परिचारिका बोली – महाराज यह जल मेरे पिता का तैयार किया हुआ नहीं है। मेरे ग्राम के समीप एक आश्रम है। वहाँ एक योगी रहते हैं। आश्रम के समीप ही एक कुंड है , जो वर्ष भर जल से भरा रहता है , यह जल उसी कुंड का है। मैं उसे विशेष रूप से आपके लिए ही लाई थी। ’’
भिशक अनंगपाल की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। नव -परिचारिका को पर्याप्त पारितोषिक दे वे उस आश्रम की ओर चल पड़े। दो दिन की अनवरत यात्रा के बाद सब लोग उस आश्रम में जा पहुँचे।
महाराज ने वहाँ पहुँचते ही अनुभव किया कि यहाँ की तो प्रत्येक वस्तु उसी सुगंध से परिपूर्ण दिखाई देती है। महाराज बड़े आश्चर्यचकित हुए।
सत्वर ही योगी को प्रणाम कर उन्होंने पूछा – महात्मन् आपके आश्रम में यह भीनी – भीनी सुगंध कहाँ से आ रही है ? ’’
योगी ने हँसकर कहा – महाराज एक वृक्ष यहाँ से सौ योजन दूरी पर इसी पर्वत पर है , मैं सदैव उसका ध्यान करता रहता हूँ , आश्रम उसी की सुगंध से अहर्निश गूँजा करता है। ’’
केवल स्मरण मात्र से ऐसा होना बड़ी कठिन बात है महात्मन् ! आप समझ भी नहीं सकते , यह संकल्प का चमत्कार है। संकल्प – बल से व्यक्ति अपने जीवन को नहीं , प्रत्युत अपने वातावरण को भी जैसा चाहें , वैसा ही बना सकते हैं , महाराज!
महाराज को वह पुष्प तो नहीं मिल सका पर जो तत्त्व – ज्ञान लेकर लौटे वह उससे भी महत्त्वपूर्ण था।