एक आवश्यक राज – काज के लिए मंत्री की तुरंत आवश्यकता पड़ी। उन्हें बुलाया गया तो मालूम पड़ा कि वे पूजा में बैठे हैं , इस समय न आ सकेंगे।
काम जरूरी था , राजा ने स्वयं ही मंत्री के पास पहुँचना उचित समझा। राजा के पहुँचने पर भी मंत्री उपासना पूरी होने तक जप ध्यान में बैठे ही रहे। पूजा समाप्त होने पर जब मंत्री उठे तो राजा ने पूछा – भला ऐसी भी कौन महत्त्वपूर्ण बात है जिसके लिए तुम मेरी उपेक्षा करके भी लगे रहे ? ’’
मंत्री ने कहा – राजन मैं गायत्री जप कर रहा था। यह महामंत्र लोक और परलोक में कल्याण को सब साधन जुटाता है। इसका फल बहुत बड़ा है। इसी में मैं तन्मय होकर उपासना करता हूँ। ’’
राजा ने कहा – तब तो इसे हम भी सीखेंगे और वैसा ही लाभ हम भी उठावेंगे। ’’ मंत्री ने कहा – सीखने में हर्ज नहीं , पर आपको वैसा लाभ न मिल सकेगा जैसा बताया गया है। श्रद्धा और विश्वास के बिना मंत्र भी फल नहीं देते। मंत्र सीखने से पहले आपको श्रद्धा की साधना करनी चाहिए। ’’
राजा जिस काम से आए थे वह मंत्रणा करके वे वापस चले गए। पर उस मंत्र की बात उनके मस्तिष्क में जमी ही रही , जिसे मंत्री इतना महत्त्व देते हैं। एक दिन राजा ने प्रसंगवश मंत्री से पूछा – श्रद्धा के बिना मंत्र क्यों फल नहीं देता? ’’
मंत्री ने कुछ उत्तर न दिया चुप हो गए। पर थोड़ी देर में एक बालक कर्मचारी उधर से निकला तो मंत्री ने उसे पास बुलाकर आज्ञा दी – राजा के गाल पर एक चपत लगा दो। ’’
बालक इस आज्ञा को सुनकर सन्न रह गया। पर उसने वैसा किया नहीं। मंत्री ने दो – तीन बार वही आज्ञा दी तो भी उस लड़के ने मंत्री का कहना नहीं माना और चुपचाप खड़ा रहा।
मंत्री की असभ्यता देखकर राजा को क्रोध आया और उसने लड़के को आज्ञा दी कि इस मंत्री के गाल पर दो चपत लगाओ। कर्मचारी लड़के ने तुरंत मंत्री के गाल पर दो चपत जड़ दिए।
मंत्री ने नम्रतापूर्वक कहा – राजन यह आपके प्रश्न का उत्तर है। लड़के ने मेरा कहना नहीं माना। उसने आपको वैसी आज्ञा का अधिकारी और मुझे अनधिकारी माना।
मंत्रों की भी यही बात है। वे श्रद्धावान् और सत्पात्र की ही इच्छा पूरी करते हैं। इसलिए आपको अधिकारी बनने के लिए मैंने कहा था और मंत्र जप से भी पहले श्रद्धा सदाचार को अपनाने की प्रार्थना की थी। ’