एक बार महाराजा अशोक के राज्य में अकाल पड़ा। जनता भूख तथा प्यास से त्रस्त हो उठी। राजा ने तत्काल राज्य में अन्न के भंडार खुलवा दिए।
सुबह से लेने वालों का ताँता लगता और शाम तक न टूटता। एक दिन संध्या हो गई। जब सब लेने वाले निपट गए तो एक कृशकाय बूढ़ा उठा और उसने अन्न माँगा। बाँटने वाले भी थक चुके थे अतः उन्होंने उसे डाँटकर कहा – कल आना आज तो अब खैरात बंद हो गई। ’’
तभी एक हृष्ट – पुष्ट शरीर के नवयुवक जैसा व्यक्ति आया और बाँटने वालों से बोला – बेचारा बूढ़ा है। मैं देख रहा हूँ बड़ी देर से बैठा है यह। शरीर से दुर्बल होने के कारण सबसे पीछे रह गया है। इसे अन्न दे दो। ’’
उसकी वाणी में कुछ ऐसा प्रभाव था कि बाँटने वालों ने उसे अन्न दे दिया। उस नवयुवक की सहायता से उसने गठरी बाँध ली। अब उठे कैसे? तब वही युवक बोला – लाओ मैं ही पहुँचाए देता हूँ। ’’
और गठरी उठाकर पीछे – पीछे चलने लगा।बूढ़े का घर थोड़ी दूर पर रह गया था। तभी एक सैनिक टुकड़ी उधर से गुजरी। टुकड़ी के नायक ने घोड़े पर से उतर कर गठरी ले जाने वाले का फौजी अभिवादन किया। उस व्यक्ति ने संकेत से आगे कुछ बोलने को मना कर दिया। फिर भी बूढ़े की समझ में कुछ – कुछ आ गया।
वह वहीं खड़ा हो गया और कहने लगा – आप कौन हैं , सच – सच बताइए। ’’ वह व्यक्ति बोला – मैं एक नौजवान हूँ और तुम वृद्ध हो , दुर्बल हो। बस इससे अधिक परिचय व्यर्थ है। चलो बताओ तुम्हारा घर किधर है। ’’
पर अब तक बूढ़ा पूरी तरह पहचान चुका था। वह पैरों में गिर गया और क्षमा माँगते हुए बड़ी मुश्किल से बोला – प्रजापालक आप सच्चे अर्थों में प्रजापालक हैं। ’’