परीक्षा लिए बिना जब गुरु ने अपने तीनों शिष्यों की शिक्षा पूरी होने की बात बताकर घर जाने को कहा तो उन्हें आश्चर्य तो हुआ किंतु गुरु को प्रणाम कर तीनों चलें।
मार्ग में एक जगह कांटे बिखरे पड़े थे। इसे देखकर एक बार तो तीनों शिष्य रुक गये। पर कुछ देर बाद तीनों की अलग – अलग प्रतिक्रिया हुई।
पहले ने कहा , हमें इन कांटों से बचकर चलना चाहिए और वह धीरे – धीरे बचता हुआ पार हो गया। दुसरा जो एक अच्छा खिलाड़ी था , कूदता – फाँदता उन काँटों से बचकर निकल गया। किंतु तीसरे ने अपना सामान वहीं उतार कर रास्ते में बिखरे कांटों को चुन – चुन कर हटाना शुरू कर दिया।
उसके हाथ – पांव में कुछ कांटे चुभे भी , खून भी निकला किंतु उसने कोई परवाह नहीं की। दोनों साथी कह रहे थे – ‘ क्यों परेशान होते हो। बचकर निकल आओ। ’ किंतु वह लगा रहा और धीरे – धीरे सब काँटे साफ कर दिये।
इतने में उन्होंने देखा कि गुरुदेव खड़े हैं। उन्होंने प्रथम दोनों शिष्यों से कहा – ‘ तुम दोनों की शिक्षा पूरी नहीं हुई है। तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए मैंने ही ये काँटे बिछाये थे। परीक्षा में तुम उत्तीर्ण नहीं हो सके।
रास्ते के काँटों को चुनकर हटा देना और दूसरों के लिए मार्ग सुगम कर देना ही जीवन है। जो यह नहीं सीख पाया उसे अभी और शिक्षा लेनी है। ’ और तीसरे शिष्य को आशीर्वाद देकर उसे उन्होंने बिदा कर दीया।