कौशांबी में संत रामानंद नगर के बाहर एक कुटिया में अपने शिष्य गौतम के साथ रहते थे। नगरवासी उनका सम्मान करते हुए उन्हें पर्याप्त दान-दक्षिण दिया करते थे।
एक दिन अचानक संत ने गौतम से कहा – यहां बहुत दिन रह लिया। चलो अब कहीं और रहा जाए।
गौतम ने जवाब दिया – गुरुदेव , यहां तो बहुत चढ़ावा आता है। कुछ दिन बाद चलेंगे। संत ने समझाया – बेटा , हमें धन और वस्तुओं के संग्रह से क्या लेना – देना , हमें तो त्याग के रास्ते पर चलना है। यह कहकर संत गौतम को लेकर चल पड़े।
गौतम ने जमा किए अपने कुछ सिक्के झोले में छिपा लिए। दोनों नदी तट पर पहुंचे। वहां उन्होंने नाव वाले से नदी पार कराने की प्रार्थना की। नाव वाले ने कहा – मैं नदी पार कराने के दो सिक्के लेता हूं। आप लोग साधु – महात्मा हैं। आपसे एक ही लूंगा।
संत के पास पैसे नहीं थे। वे वहीं आसन जमा कर बैठ गए। शाम हो गई। नाव वाले ने कहा – यहां रुकना खतरे से खाली नहीं है। आप कहीं और चले जाएं। सिक्के हों तो मैं नाव पार करा दूंगा।
खतरे की बात सुनकर गौतम घबरा गया। उसने झट अपने झोले से दो सिक्के निकाले और नाव वाले को दे दिए।
नाव वाले ने उन्हें नदी पार करा दिया। गौतम बोला – देखा गुरुदेव , आज संग्रह किया हुआ मेरा धन ही काम आया। पर आप संग्रह के विरुद्ध हैं।
संत ने मुस्कराकर कहा – जब तक सिक्के तुम्हारे झोले में थे , हम कष्ट में रहे। ज्यों ही तुमने उनका त्याग किया , हमारा काम बन गया। इसलिए त्याग में ही सुख है।