एक सूफी फकीर मस्जिद में बैठकर अल्लाह से अपनी लौ में लीन थे। चारों तरफ प्रकाश फैला था।
तभी अचानक झरोखे से एक पक्षी अन्दर आ गया। वह कुछ देर तक तो अन्दर इधर – उधर होता रहा। फिर बाहर निकलने की कोशिश करने लगा। कभी वह इस कोने से निकलने की कोशिश करता तो कभी उस कोने से।
उसकी छटपटाहट बढती जा रही थी। कभी वह दीवार से टकराता तो कभी छत से। किन्तु उस तरफ नहीं जाता , जिस झरोखे से वह अन्दर आया था।
फकीर बहुत ध्यान से देख रहा था। उसे चिंता हो रही थी कि उसे कैसे समझाए कि जैसे अन्दर आने का रास्ता निश्चित है , उसी प्रकार बाहर जाने का रास्ता भी निश्चित है। द्वार तो वही होता है , किन्तु सिर्फ दिशा बदल जाती है।
फकीर ने उसे बाहर निकालने की कोशिश की , किन्तु वो उतना ही घबरा जाता और बैचेन होने लगा। उसे लगता कि वह उसे मारने आया है।
फकीर का ध्यान पक्षी से हटा और वह कुछ सोचने लगा। फकीर ने सोचा कि इस संसार में आकर हम क्या इसी परिंदे की तरह नहीं उलझ जाते ? जब हम जीवन में प्रवेश कर जाते हैं तब हमारे पास उससे निकलने का रास्ता तो होता है , पर अज्ञान के कारण हम उस रास्ते को देख नहीं पाते। जीवन के प्रपंच हमें भांति – भांति से कष्ट पहुंचाते रहते हैं और हम छटपटाते रहते हैं। इसी पक्षी की तरह।