कोसलपुर के राजा बड़े परोपकारी थे। एक बार पास के राज्य काशी के राजा ने कोसल पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया।
हार के बावजूद कोसल के राजा ने आत्म – समर्पण नहीं किया तथा किसी तरह से बचकर राज्य से दूर चले गए। कोसलपुर की प्रजा अपने राजा के चले जाने से परेशान रहने लगी।
काशीराज ने देखा कि प्रजा हृदय से अपने राजा को ही याद करती है। काशीराज ने घोषणा की कि जो कोसल के निर्वासित राजा को पकडवाएगा , उसे एक हजार स्वर्णमुद्राएँ तथा कई गाँव इनाम में दिए जाएंगे। पर राज्य का कोई नागरिक इस पाप के लिए तैयार नहीं हो रहा था।
एक दिन कोसलराज जंगल में भटक रहे थे कि एक व्यक्ति उनके पास आया और कोसलपुर जाने का मार्ग पूछा।
राजा ने पूछा – ‘ तुम वहां क्यों जाना चाहते हो ? ‘ उसने जवाब दिया – ‘ मैं व्यापारी हूँ। नौका से सामान ला रहा था , लेकिन नौका नदी में डूब गई। मैं भिखारी जैसा हो गया हूँ। सुना है कि कोसलपुर के राजा बड़े धर्मात्मा हैं। मैं उन्हीं की शरण में जा रहा हूँ। ‘
राजा ने कहा – ‘ चलो , मैं तुम्हें वहां तक ले चलता हूँ। ‘ राजा उसे लेकर काशीराज के दरबार में पहुंचे। काशीराज ने उस जटाधारी से पूछा – ‘ तुम यहाँ क्यों आए हो ? ‘
उसने कहा – ‘ काशीराज , मैं कोसलपुर का राजा हूँ। मेरे साथ आया यह व्यक्ति व्यापारी से भिखारी बन चुका है। आप मुझ पर घोषित इनाम की स्वर्णमुद्राएँ देकर इसकी सहायता करें। ‘
यह देख काशीराज हतप्रभ रह गए। बोले – ‘आप तो महान उदार हृदय राजा हैं। मैं आपका राज्य लौटाता हूँ। सेना के बल पर मैंने आपका राज्य भले ही जीत लिया , परन्तु प्रजा का मन नहीं जीत पाया। प्रजा के मन के राजा तो आप ही है। ‘
राजा ने कोसल नरेश के सिर पर मुकुट रख दिया और स्वयं काशी की ओर वापस लौट गए।