यदि मेरे पास दो विकल्प हों –
एक यह कि ,
‘ मैं ऐसा सटीक लिखूं कि मेरा लिखा हुआ पढ़ने के लिए लोग मजबूर हो जाए ‘
और दूसरा यह कि ,
‘ मैं ऐसा जीवन जी लूं कि मेरे जीवन पर लिखने के लिए लोग मजबूर हो जाए ‘
तो मैं किस विकल्प को पसंद करूंगा ? प्रथम विकल्प को पसंद करने के लिए मन हमेशा तैयार रहेगा।
क्यों ?
क्योंकि , इसमें कोई बड़ी चुनौती नहीं है और सफल होने में कोई विशेष परेशानी नहीं है ।
जबकि दूसरे विकल्प को पसंद करने में मन हमेशा पीछे हटेगा।
क्यों ?
क्योंकि , इसमें चुनौती बहुत बड़ी है और सफलता भी संदिग्ध है।
इसके बावजूद इतना ही कहूंगा कि यह दुनिया आज थोड़ी बहुत भी अच्छी दिख रही है तो इसका जितना श्रेय अच्छे साहित्य को जाता है उससे ज्यादा सद्आचरण को जाता है ।
यद्यपि ,
खराब आचरण वाला भी अच्छा लिख सकता है और सद्आचरण वाला भी अच्छा लिख सकता है , पर जिनका आचरण भी सद् है और लेखन भी सटीक तथा मार्मिक है उन्होंने इस दुनिया पर जो उपकार किया है वह अवर्णनीय है।
प्रश्न दूसरों का नहीं , हमारा है ।
प्रश्न साहित्यकारों का नहीं , हमारा है ।
क्या मुझे ऐसा साहित्यकार बनना चाहिए कि लोगों को मुझे पढ़ें बिना चैन ना पड़े या मुझे ऐसा सदाचारी बनना चाहिए कि लोगों को मुझ पर लिखे बिना चैन ना पड़े ?
संदेश स्पष्ट है ।
सैनिक अच्छा संगीतकार न हो यह चल सकता है। पर अच्छा योद्धा तो होना ही चाहिए।
इंसान के पास अमीरी न हो तो चल सकता है। पर इंसानियत तो उसमें होनी ही चाहिए। इसी तरह ,
साहित्यकार बनने की मुझमें क्षमता मुझ में न हो यह चल सकता है , पर सदाचरण तो मुझ में होना ही चाहिए ।
इस संदर्भ में एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात – दीपक को स्वयं के बारे में बोलने की आवश्यकता नहीं पड़ती ,
उसका प्रकाश उसके बारे में बोलता रहता है। ऐसे ही सदाचारी को अपने बारे में बोलने की आवश्यकता नहीं पड़ती , उसका सदाचरण ही उसके बारे में बोलता रहता है। मैं क्या कहना चाहता हूं आप समझ गए होंगे।
Wow
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