कलाप्रस्तर नामक एक मूर्तिकार बेहद सुंदर मूर्तियां बनाया करता था। उसने अपने बेटे अहं को भी मूर्तिकला का ज्ञान देना शुरू किया।
कुछ वर्षों में बेटा भी मूर्तियां बनाने में निपुण हो गया। अब पिता – पुत्र दोनों बाजार जाते और मूर्तियां बेचकर आ जाते।
कुछ समय बाद प्रस्तर ने अहं की मूर्तियों को अलग से बेचना शुरू कर दिया। अहं की मूर्तियां प्रस्तर की मूर्तियों से ज्यादा दामों पर बिकने लगीं।
एक रात अहं जब मूर्ति बना रहा था तो प्रस्तर उसकी मूर्ति को देखते हुए उसमें कमी बताने लगा। पिता को मूर्ति में जगह – जगह कमी बताते देख अहं खीज गया। वह चिढ़कर बोला , ‘ पिताजी , आपको तो मेरी मूर्ति में दोष ही नजर आता है। यदि मेरी मूर्ति में कमी होती तो आज मेरी मूर्ति आपसे ज्यादा कीमत में नहीं बिकती। ‘
बेटे की बातें सुनकर पिता दंग रह गया। वह चुपचाप अपने बिस्तर पर आकर लेट गया। कुछ देर बाद अहं को लगा कि उसे पिता से इस तरह बात नहीं करनी चाहिए थी। वह पिता के पैरों के पास आकर बैठ गया।
अहं के आने की आहट से प्रस्तर उठ बैठा और बोला , ‘ बेटा , जब मैं तुम्हारी उम्र का था तो मुझे भी अभिमान हो गया था। उस समय मेरी एक मूर्ति पांच सौ रुपये में बिकी थी और मेरे पिता की पांच रुपये में। तब से लेकर आज तक मैं पांच सौ से आगे नहीं बढ़ पाया।
मैं नहीं चाहता कि अभिमान करने से जो नुकसान मुझे हुआ , वह तुम्हें भी हो। इंसान तो हर पल सीखता रहता है। ‘
अहं ने पिता से कहा , ‘ आगे से आप मेरी हर कमी बताइएगा , मैं उसे सुधारने की कोशिश करूंगा। ‘