एक बार सभी देवता नारद के विषय में चर्चा कर रहे थे। वे सभी नारद जी के बिना बुलाये कहीं भी बार – बार आ जाने को लेकर बहुत परेशान थे। उन्होंने निश्चय किया की वे अपने द्वारपालों से कहकर नारद जी को किसी भी दशा में अंदर प्रवेश नही करने देंगे और किसी न किसी बहाने से उन्हें टाल देंगे। अगले दिन नारद जी भगवान शिव के दर्शन हेतु कैलाश पर्वत पहुंचे परन्तु नंदी ने उन्हें बाहर ही रोक दिया।
नंदी के इस तरह रोके जाने पर नारद आश्चर्यचकित होकर उनसे पूछने लगे आखिर आप मुझे अंदर प्रवेश क्यों नही करने दे रहे। तब नंदी ने उन्हें कहा की आप कहीं और जाकर अपनी वीणा बजाए भगवान शंकर अभी ध्यान मुद्रा में है , जिसे सुन नारद जी को क्रोध आ गया और वे क्षीरसागर भगवान विष्णु से मिलने पहुंचे। वहा पर भी बाहर ही उन्हें पक्षिराज गरुड़ ने रोक लिया तथा अंदर प्रवेश नही करने दिया। इसी तरह नारद मुनि हर देवताओ के वहां गए परन्तु स्वर्ग के सभी द्वार उनके लिए बंद हो चुके थे।
नारद मुनि इस घटना से बहुत परेशान हो गए तथा देवताओ से अपने अपमान का बदला लेने की सोचने लगे परन्तु उन्हें उस समय कोई मार्ग नही सूझ रहा था। इसतरह इधर – उधर भड़कते एक दिन वे काशी पहुंचे वहा वे एक बहुत ही पहुंचे हुए प्रसिद्ध महात्मा संत से मिले। नारद जी ने उन संत के चरण छुए तथा अपनी समस्या बताई। कुछ देर सोचने के बाद वह संत बोले की में तो खुद देवताओ का एक दास हुं जो उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए हर समय उन्ही के ध्यान में लगा रहता हूं ।आखिर में भला आप को क्या दे सकता हुं ।
फिर भी मेरे पास देवता के दिए हुए तीन अद्भुत पाषाण है। आप इन्हें रख लीजिये। संत उन पाषाणों की महत्वता बताते हुए बोले की हर एक पाषाण से आप की कोई भी एक मनोकामना पूर्ण होगी , परन्तु ध्यान रहे की इनसे ऐसी कोई मनोकामना की इच्छा मत करना जिससे देवता प्रभावित हो क्योकि ये पाषाण देवताओ पर कोई प्रभाव नही डालेंगे।
नारद जी ने वे तीनो पाषाण संत से लेकर अपने झोली में डाल लिए तथा उन्हें प्रणाम कर आगे बढ़ गए। तभी मार्ग में उन्हें एक विचार आया। वह एक नगर में पहुंचे तभी वहां उन्हें एक घर से रोने की आवाज सुनाई दी , वहां पहुंचे आस पास के लोगे से उन्हें पता चला की नगर के बड़े सेठ की मृत्यु हो गई है।
नारद ने तुरंत अपनी झोली से एक पाषाण निकाला तथा कामना की – ” नगर का सेठ पुरे सो साल जिए ” उनके ऐसा कहते ही नगर का सेठ फिर से जीवित हो उठा। नारद जी सेठ को जीवित कर आगे कीऔर बढ़ चले तभी मार्ग में उन्हें एक कोढ़ के रोग से ग्रसित भिखारी दिखा , नारद जी ने अपने दूसरे पाषाण के प्रभाव से उसे पूरी तरह स्वस्थ कर लखपति बना दिया।
इसके बाद उन्होंने अपना तीसरा पाषाण निकला तथा कामना करी की उन्हें फिर तीनो सिद्ध पाषाण मिल जाए। उनके पास फिर से तीन सिद्ध पाषाण आ गए इस तरह वे उन पाषाणों से उल्टे – सीधे कामनायें करने लगे और सृष्टि के चक्र में बाधा पहुचाने लगे । जिस कारण सभी देवता परेशान हो गए।
एक बार फिर से देवता एक जगह एकत्रित हुए तथा उन में से एक देवता बोले की हमने नारद जी के लिए स्वर्ग का द्वार बंद कर अच्छा नही किया। उन्हें चंचलता का श्राप है इसलिए वे इधर उधर भटकते रहते है। पर उनसे हमे सभी सूचनाये मिल जाती थी । फिर वो चाहे किसी भी लोक की हो , हमे उन्हें वापस स्वर्ग लोक लाना होगा। तब देवतो ने निश्चित किया की वरुण देव और वायु देव नारद जी को ढूढ़ कर लेके आएंगे।
दोनों नारद जी की खोज में पृथ्वी लोक पहुंचे तथा बहुत दिनों तक नारद जी को खोजते रहे। अंत में एक दिन वरुण देव ने नारद जी को गंगा किनारे स्नान करते पाया तथा वायु देव को कुछ संकेत किया। वरुण देव का संकेत पाकर वायु देव तेजी से बहने लगे नदी के तट के पास ही नारद जी की वीणा रखी थी जो वायु देव के बहने के कारण बज उठी। नारद जी ने वीणा सुनी तो वे हैरान हो गए क्योकि उन्होंने वीणा बजानी छोड़ रखी थी।
तभी उन्हें वीणा के समीप वायु देव और वरुण देव दिखाई दिए जो उन्हें देख मुस्करा रहे थे। उन्हें समीप जाकर नारद जी ने उनसे देवलोक के हाल चाल पूछे और उनके आने का कारण जाना। वरुण देव बोले नारद जी हम सभी देव आप के साथ किये गए व्यवहार से शर्मिंदा है और आपको पुनः स्वर्गलोक ले जाने आये है। नारद जी ने अपना क्रोध भुलाकर वरुण देव और वायु देव के साथ स्वर्ग लोक की और प्रस्थान किया तथा वे तीनो पाषाण वहीं गंगा में प्रवाहित कर दिए ।