अभिनिष्क्रमण से पूर्व जब तीर्थंकर महावीर वर्षी दान दे रहे थे , तब सोमभट्ट ब्राह्मण जीविकोपार्जन के लिए विदेश गया हुआ था , पर भाग्य का मारा वह खाली हाथ लौटा।
पत्नी ने कहा , ‘ अब क्या आए हो ! जब यहां धन लूटा रहे थे महावीर , तब तुम बाहर थे और जब वह प्रव्रजित हो चुके हैं तब तुम घर आए हो। जाओ अब भी , उनके पास , वे करुणा – सागर हैं। तुम्हारी झोली भर देंगे।’
सोनभट्ट घर से रवाना हो गया। वन में महावीर के पास पहुंचा और उनसे याचना की। महावीर के पास ऐसा कुछ नहीं था जो उस गरीब ब्राह्मण को दे सके। जिस आत्म – संपदा के वे स्वामी थे, वह उस गरीब के किसी काम न थी। उन्होंने इधर – उधर देखा। शरीर पर वस्त्रों के नाम पर केवल एक वस्त्र था, जिसे प्रदान किया था इंद्र ने, अभिनिष्क्रमण के समय।
महावीर ने कुछ सोचा, उस वस्त्र को हाथ में लिया, दो भाग किए और एक भाग ब्राह्मण को दे दिया।
जब सोमभट्ट उस वस्त्र – खंड को लेकर वस्त्र – विक्रेता के पास पहुंचा तो उसने कहा, ‘ यह वस्त्र लाखों का है, पर पूरी कीमत तभी मिल सकती है, जब इस का शेष भाग भी साथ हो।’
लाभ लोभ को पैदा करता है। सोमभट्ट फिर चला गया महावीर को ढूंढने। पहुंच तो गया उनके पास, पर आधा वस्त्र और मांगने में सकुचा गया। वह यह सोचकर महावीर के पीछे – पीछे चलने लगा कि कभी ये अपने आप ही दे देंगे।
एक दिन तेज हवा का झोंका आया। हवा के झोंके से वह दुपट्टा कंधे से उड़ गया। महावीर ने पीछे घूम कर देखा। ब्राह्मण कंटीली झाड़ियों से उसी दुपट्टे को झटपट निकाल रहा था। उनके चेहरे पर करुणा भरी मुस्कान हो उभर आई, वे बिना कोई प्रतिक्रिया किए आगे बढ़ चले।