अह्रतृ महावीर उत्तर वाचाल की ओर जा रहे थे। मार्ग में दो पगडण्डियां आयीं। ग्रामीणों ने बताया , ‘ यह वह पगडंडी है जो सीधी उत्तर वाचाल पहुंचती है और दूसरी घूमकर ।
लेकिन आप दूसरी पगडंडी पर जाएं , क्योंकि छोटी पगडंडी के मार्ग में महाविषधर सर्प रहता है । जहां उस नागराज का स्थान है , उसके आसपास के वातावरण में विष की इतनी प्रचंड लहरें उठती हैं कि वहां पत्ते भी कभी खिल नहीं पाते। ‘
अभयदाता को भला किसका भय ! महावीर उस पगडंडी की ओर रवाना हो गए जिसमें विषधर का निवास स्थान था।
वर्षों से उस मार्ग से कोई भी इंसान न गुजरा था। सर्पराज , जिसके प्रचंड विष के कारण लोग उसे चण्डकौशिक कहा करते थे , वृक्ष के नीचे लेटा हुआ था। वातावरण में किसी मनुष्य की गंध आयी। सोचा , ‘ क्या कोई मनुष्य यहां तक पहुंच गया है क्या मेरी विष – तरंगों ने उसे प्रभावित नहीं किया है ?
वह क्रोध से तमतमा गया , फुफकारता हुआ पहुंचा वहां , जहां अह्रतृ ध्यानस्थ थे । आव देखा न ताव , उसने अह्रतृ के अंगूठे को डस लिया
पर आश्चर्य ! अंगूठे से दूध बह रहा था। विषहर का मुकाबला भला विषधर कैसे कर सकता था ?
महावीर ने क्रोध से फुफकारते चण्डकौशिक से कहा , ‘ सर्पराज ! जागो अगर दुनिया में तुम अमृत नहीं बांट सकते तो विष फैलाने का अधिकार तुम्हें किसने दिया ? याद करो अपने अतीत को । तुम साधु थे लेकिन अपनी क्रोधी स्वभाव के कारण चण्डकौशिक बने हो। क्या अब भी बोध प्राप्त नहीं करोगे।
चण्डकौशिक ने महावीर के चेहरे की ओर देखा। एक अद्भुत आभा थी। आंखों में करुणा , हृदय में वात्सल्य , अभिव्यक्ति में प्रेम , आचरण में अहिंसा , ये सब वे विशेषताएं थी कि चण्डकौशिक कुछ भी प्रतिक्रिया व्यक्त न कर पाया। आज उसने सर्वप्रथम स्वयं को पराजित महसूस किया। यह विजय थी – क्रोध पर क्षमा की , घृणा पर प्रेम की।
कुछ पल बाद महावीर ने देखा अपनी ज्ञान – शक्ति से , चण्डकौशिक भद्रकौशिक बन गया था।