इंद्रभूति गौतम तीर्थंकर महावीर के परम शिष्य थे। महावीर प्राय: उन्हें कहा करते थे , ‘ शिष्य , होश संभालो। ‘
गौतम के लिए महावीर सर्वोपरि थे। एक क्षण के लिए भी महावीर का त्याग उनके लिए असहनीय था। परमात्मा से प्रेम किया जाता है , पर गौतम ने तो राग – श्रृंखलाएं निर्मित कर ली थी।
महावीर के ज्ञान से अब कुछ भी अवशेष नहीं था। वह देख रहे थे शिष्य के हृदय में अंकुरित होते हुए राग को। उन से अपना भविष्य भी ना छुपा था और गौतम का भी। वह इस सत्य से भी परिचित थे कि वे शीघ्र ही देह – मुक्त होने वाले हैं।
महावीर ने गौतम को बुलाया और कहा , ‘ वत्स ! तुम कुशल उपदेष्टा हो। जाओ पड़ोस के गांव में और ग्राम – प्रमुख देवशर्मा को प्रतिबोध देकरा आओ।
गौतम महावीर से दूर हो गए और अर्हत् ने निर्वाण प्राप्त कर लिया।
गौतम ग्राम – प्रमुख को प्रतिबोधत कर लौट रहे थे। मार्ग में उन्हें ज्ञात हुआ कि महावीर नहीं रहे। गौतम विलाप करने लगे यह सोच कर कि प्रभु के रहते हुए भी परम ज्ञान उपलब्ध ना कर पाया तो अब कैसे करूंगा ? पूछा उन्होंने प्रभु के अनुयायियों को , ‘ क्या मेरे लिए प्रभु कोई संदेश छोड़ गए हैं ?’
हां , निर्वाण के पूर्व उन्होंने कहा था , ‘ गौतम को कह देना , तू सागर पार कर चुका है , अब तट पर आकर क्यों बैठ गया है ? ‘
अर्हत् के अंतिम वचनों से गौतम की चेतना जागृत हो गयी। विराग की राह से वह वितराग में परिवर्तित हो गया। अर्हत् के अनुयायियों ने देखा गौतम के चारों ओर विकीर्ण हो रहे प्रकाश – पुंज को , सुना शंख – ध्वनि को , अनुभव किया आह्लाद को।