वह सुबह उठा और देखा कि मकान के पीछे बे-मौसम का कमल का फूल खिला था। उसने फूल तोड़ा , सोचा , सिवा सम्राट् के कोई भी व्यक्ति इस में बे-मौसमी कमल का सही मूल्यांकन नहीं कर पाएगा।
कमल हाथ में लेकर वह निर्धन राजमहल की ओर रवाना हो गया। राह में मंत्री मिल गया। बे-मौसम का कमल देखकर वह भी आकर्षित हो गया। कहा , ‘ इस फूल का कितना लोगे ? ‘ उसने कहा , ‘ सौ रूपए। ‘
मंत्री ने कहा , ‘ हजार दूंगा , कमल मुझे दे दो ।’
वह निर्धन चौंका। एक फूल का हजार रुपया ! जरूर इसमें कोई राज है। अगर सम्राट से मिलना हो जाए तो वह इससे भी अधिक मूल्य देगा। उसने कहा , ‘ क्षमा करें , मैं विक्रय नहीं कर पाऊंगा ।’
मंत्री जा रहा था बुध्द के दर्शन को। सोचा बे-मौसम का फूल है , चाहे जो मूल्य लगे , आज इसे भगवान बुध्द के चरणों में चढ़ाना है। उसने कहा , ‘ दस हजार दूंगा ।’ लेकिन वह निर्धन इंकार कर गया। जैसे-जैसे मंत्री रुपए बढ़ाता गया , वैसे-वैसे उसने कहा , ‘ मुझे नहीं बेचना है। ‘
अन्तत: मंत्री खाली हाथ चला गया। जैसे ही मंत्री का रथ गया कि राजा रथ आया। वह निर्धन प्रसन्न हो गया। उसने सोचा कि अब तो फूल की पूरी कीमत मिल जाएगी। राजा ने फूल देखा। दूर से ही लगा मानो ब्रह्मकमल हो , उसने कहा , ‘ इसके कितने दाम लेगा ? जितना मांगेगा , उसका दुगना मिलेगा। ‘
निर्धन ने कहा , ‘ महाराज ! मैं बड़ा गरीब आदमी हूं और दुविधा में फंस गया हूं। इतना दाम देकर आप फूल का करेंगे क्या ? ‘
मंत्री भी बहुत दाम दे रहा था और आप भी ऐसा ही बोल रहे हैं। मेरी बुद्धि चकरा गई है। जरा इतना – सा बताएं कि आप इस फूल का क्या करेंगे ? ‘
राजा ने कहा , ‘ तुझे पता नहीं है। जैतवन में बुध्द का आगमन हुआ है। शायद उनके आने से ही यह बे-मौसम का कमल का फूल खिला है। अब तक कई लोगों ने उनके चरणों में कमल के फूल चढ़ाएं होंगे , पर यह बे-मौसम का फूल है , यह मेरे हाथ से ही चढ़ना चाहिए। जो चाहे सो तू मांग ले। ‘
निर्धन ने कुछ सोचा और कहा , ‘ क्षमा करें । मैं स्वयं ही बुध्द के चरणों में यह फूल चढ़ाउंगा । जब आप इतना मुल्य देकर अर्हत् के चरणों में फूल चढ़ाना चाहते हैं तो जरूर ही रूपयों से भी अधिक रस इसे चढ़ाने में होगा। इतने दिन गरीबी में गुजारे हैं तो कुछ और भी गुजर जाएंगे।’
बुध्द प्रवचन – सभा में पहुंचे। निर्धन ने वह बे-मौसम का फूल बुध्द के चरणों में चढ़ा दिया।
फुल जितना अपूर्व था उससे भी अधिक अपूर्व उस निर्धन के भाव थे। एक निर्धन ने सम्राट् को चुनौती दी थी। इससे बड़ी कुर्बानी असंभव थी।भगवान बुद्ध उस फूल को बार-बार निरखने लगे , चुमने लगे।
कुछ पल बीतने पर भगवान बुद्ध बोले , ‘ यह अद्भुत दान है। इस निर्धन के दान के सम्मुख सम्राटों के सिर भी शर्म से झुक रहे हैं। यह चुंबन फूल को नहीं अपितु निर्धन के उत्कट भावनाओं को है। तभी चारों ओर से आवाज गूंजी , ‘ अहो दानम् – महादानम् ।