संत एकनाथ काशी से रामेश्वरम् की ओर जा रहे थे। साथ में और भी संत थे। सभी संत अपने – अपने कंधों पर शिवलिंग पर चढ़ाने के लिए गंगाजल ले जा रहे थे।
कुछ दिनों तक चलने के बाद मार्ग में मरुस्थल आया। मरुस्थल में एक गधा प्यास से तड़प रहा था। सभी संत झुंड बनाकर वहां खड़े हो गए। वे प्यासे गधे के लिए संवेदना प्रकट करने लगे पर वह केवल शाब्दिक संवेदना थी।
एकनाथ सबसे पीछे चल रहे थे। वह भी वहां पहुंचे। देखा कि सब लोग गधे के लिए ‘बेचारा ‘ ‘ बेचारा ‘ कह रहे हैं , पर पानी कोई नहीं पिला रहा है। एकनाथ गधे के पास गए और अपनी कावड खोलने लगे उसे पानी पिलाने के लिए।
संतो ने एकनाथ का हाथ पकड़ा और कहा , ‘ एकनाथ ! यह क्या कर रहे हो ? इतनी दूर से रामेश्वरम् तीर्थ पर चढ़ाने के लिए जल लेकर आए हो , और उसे यहां ढुलका का रहे हो। यों तो तुम्हारी सारी मेहनत बेकार चली जाएगी। ‘
एकनाथ मुस्कुराए और बोले , ‘ संतो ! मुझे तो रामेश्वरम् के भगवान की इस प्यासे प्राणी में ही दिखाई दे रहे हैं।
संत और कुछ कहते , उससे पहले ही एकनाथ यह कहते हुए गधे को अपनी कावड़ का गंगाजल पिलाने लगे और सोचने लगे कि मेरी ओर से तो यही रामेश्वरम् का अभिषेक हो गया है। रामेश्वरम् का भगवान शायद इस जानवर से ज्यादा प्यासा नहीं होगा। ‘