संत रांका अपरिग्रही और अकिंचन माने जाते थे। परिवार के नाम पर केवल एक पत्नी थी। पति – पत्नी दोनों जंगल में जाते , लकड़ियां काटते और उन्हें बैचकर अपनी आजीविका चलाते थे।
वर्षा – ऋतु थी । पांच – छह दिन तक निरंतर पानी बरसा। वे दोनों लकड़ियां काटने न जा सके। छह दिन तक दोनों को भूखा रहना पड़ा। सातवें दिन वर्षा थमी और वे दोनों लकड़ियां काटने के लिए रवाना हुए।
रांका आगे – आगे जा रहे थे। सौ – फुट पीछे उनकी पत्नी चल रही थी। रांका ने देखा की राह के किनारे अशर्फीयों से भरी हुई एक थैली पड़ी थी। सोचा , ‘ मैं तो अंकिचन हूं अतः कहीं यह सोना मेरी पत्नी को प्रलोभित न कर दे। ‘
उन्होंने अशर्फीयों पर मिट्टी डालने शुरु कर दी। वे मिट्टी डाल ही रहे थे कि उनकी पत्नी उनके पास पहुंच गई , पूछा , ‘ यह क्या कर रहे हैं आप ? ‘
रांका ने कहा , ‘ यहां अशर्फीयों की एक थैली पड़ी थी। सोचा , कहीं तुम्हें वह विचलित न कर दे। इसीलिए इम्हें मिट्टी से ढंकने लग गया था। ‘
पत्नी हंसने लगी और रांका उसकी और नजर उठाकर देखने लगे।
पत्नी ने कहा , ‘ तुम अकिंचन कहलाते हो और मिट्टी को मिट्टी से ढांकते हो ? ‘
रांका ने हाथ झड़काया। कुछ झुंझलाए और रवाना हो गए जंगल की ओर। आज उन्होंने पहली बार स्वयं में ” वीतराग ” को जन्मा हुआ पाया था।