स्वामी जी का प्रवचन समाप्त हुआ। अपने प्रवचन में उन्होंने सेवा – धर्म की महत्ता पर विस्तार से प्रकाश डाला और अन्त में यह निवेदन भी किया कि जो इस राह पर चलने के इच्छुक हों , वह मेरे कार्य में सहयोगी हो सकते हैं। सभा विसर्जन के समय दो व्यक्तियों ने आगे बढ़कर अपने नाम लिखाये। स्वामी जी ने उसी समय दूसरे दिन आने का आदेश दिया।
सभा का विसर्जन हो गया। लोग इधर – उधर बिखर गये। दूसरे दिन सड़क के किनारे एक महिला खड़ी थी , पास में घास का भारी ढेर रखा था। किसी राहगीर की प्रतीक्षा कर रही थी कि कोई आये और उसका बोझा उठवा दे। एक आदमी आया , महिला ने अनुनय – विनय की , पर उसने उपेक्षा की दृष्टि से देखा और बोला – ‘‘ अभी मेरे पास समय नहीं है। मैं बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने जा रहा हूँ। ’’इतना कह वह आगे बढ़ गया। थोड़ी ही दूर पर एक बैलगाड़ी दलदल में फँसी खड़ी थी। गाड़ीवान् बैलों पर डण्डे बरसा रहा था पर बैल एक कदम भी आगे न बढ़ पा रहे थे। यदि पीछे से कोई गाड़ी के पहिये को धक्का देकर आगे बढ़ा दे तो बैल उसे खींचकर दलदल से बाहर निकाल सकते थे। गाड़ीवान ने कहा – ‘‘ भैया ! आज तो मैं मुसीबत में फँस गया हूँ। मेरी थोड़ी सहायता कर दो। ’’
राहगीर बोला – मैं इससे भी बड़ी सेवा करने स्वामी जी के पास जा रहा हूँ। फिर बिना इस कीचड़ में घुसे , धक्का देना भी सम्भव नहीं , अतः अपने कपड़े कौन खराब करे। इतना कहकर वह आगे बढ़ गया।
और आगे चलने पर उसे एक नेत्रहीन वृद्धा मिली। जो अपनी लकड़ी सड़क पर खटखट कर दयनीय स्वर से कह रही थी , ‘‘ कोई है क्या ? जो मुझे सड़क के बायीं ओर वाली उस झोंपड़ी तक पहुँचा दे। भगवान् तुम्हारा भला करेगा। बड़ा अहसान होगा। ’’
वह व्यक्ति कुड़कुड़ाया – ‘‘ क्षमा करो माँ ! क्यों मेरा सगुन बिगाड़ती हो? तुम शायद नहीं जानती मैं बड़ा आदमी बनने जा रहा हूँ। मुझे जल्दी पहुँचना है। ’’
इस तरह सबको दुत्कार कर वह स्वामीजी के पास पहुँचा। स्वामीजी उपासना के लिए बैठने ही वाले थे , उसके आने पर वह रुक गये। उन्होंने पूछा – क्या तुम वही व्यक्ति हो , जिसने कल की सभा में मेरे निवेदन पर समाज सेवा का व्रत लिया था और महान् बनने की इच्छा व्यक्त की थी।
जी हाँ ! बड़ी अच्छी बात है , आप समय पर आ गये। जरा देर बैठिये , मुझे एक अन्य व्यक्ति की भी प्रतीक्षा है , तुम्हारे साथ एक और नाम लिखाया गया है।
जिस व्यक्ति को समय का मूल्य नहीं मालुम , वह अपने जीवन में क्या कर सकता है? उस व्यक्ति ने हँसते हुए कहा।
स्वामीजी उसके व्यंग्य को समझ गये थे , फिर भी वह थोड़ी देर और प्रतीक्षा करना चाहते थे। इतने में ही दूसरा व्यक्ति भी आ गया। उसके कपड़े कीचड़ में सने हुए थे। साँस फूल रही थी। आते ही प्रणाम कर स्वामी जी से बोला – ‘‘ कृपा कर क्षमा करें ! मुझे आने में देर हो गई , मैं घर से तो समय पर निकला था , पर रास्ते में एक बोझा उठवाने में , एक गाड़ीवान् की गाड़ी को कीचड़ से बाहर निकालने में तथा एक नेत्रहीन वृद्धा को उसकी झोंपड़ी तक पहुँचाने में कुछ समय लग गया और पूर्व निर्धारित समय पर आपकी सेवा में उपस्थित न हो सका। ’’
स्वामीजी ने मुस्कारते हुए प्रथम आगन्तुक से कहा – दोनों की राह एक ही थी , पर तुम्हें सेवा के जो अवसर मिले , उनकी अवहेलना कर यहाँ चले आये। तुम अपना निर्णय स्वयं ही कर लो , क्या सेवा कार्यों में मुझे सहयोग प्रदान कर सकोगे ?
जिस व्यक्ति ने सेवा के अवसरों को खो दिया हो , वह भला क्या उत्तर देता ?